हम जो देख पाते हैं उसे ही सच मान लेते हैं

adrishya viklangta invisible disability

हम जो देखते हैं उसे ही मानते हैं और अधिकतर ऐसा ही होना भी चाहिए — पर क्या हम हवा को देख सकते हैं? लेकिन साँस तो हम सभी ले रहे हैं न? अदृश्य विकलांगता भी ऐसी ही कुछ है, ऐसी कुछ जो हम में से कुछ लोगों के हर पल का अस्तित्व है — बस वह दिखाई नहीं देता।

मैं एक कामकाजी महिला हूँ, सिंगल पैरेंट हूँ, प्रोफ़ेशनल जीवन में भी अब वरिष्ठ ओहदे पर हूँ। सुबह के 5 बजे से रात के 11 बजे तक एक पल भी फुरसत का शायद ही बीतता हो। इस सबके बीच मेरे साथ एक अदृश्य साथी चलता है, विक्रम के कन्धों पर लदे हुए बेताल की तरह — मेरा फ़िब्रोमाइल्जिया और अवसाद।

मैं जो भी कुछ करती हूँ या कर पायी हूँ वो सब इस एक्स्ट्रा बोझ के साथ ही है।

लेकिन चूँकि ये बोझ किसी को नज़र नहीं आता या फिर यूँ कहिये कि किसी के पास इस अदृश्य मिस्टर इंडिया को देखने के लिए लाल लाइट या लाल चश्मे नहीं हैं — तो लोगों के लिए ये है ही नहीं!

घर पर अनेक बार मेरे दर्द और आराम करने की ज़रूरत को आलस कह दिया जाता है, अक्सर डॉक्टर समझ नहीं पाते कि एक आम सर्दी ज़ुकाम भी मेरे लिए इतना अधिक पीड़ादायक क्यों हो जाता है।

लगभग रोज़ मैं अक्सर ये लड़ाई हारती हूँ, थकती हूँ, लेकिन दर्द के कारण नींद नहीं आती, जब सोना चाहती हूँ तब सो नहीं पाती। अक्सर जलती कटती हूँ क्यूंकि जब तक त्वचा से दिमाग तक ये सन्देश पहुँचता है कि वहाँ ख़तरा है तब तक देर हो चुकी होती है। दर्द के लिए दवा लेती हूँ तो वो दर्द के संदेशों के साथ-साथ बाकी सभी संदेशों को भी दिमाग़ में जाने से रोक देती हैं और मुझे कुछ भी महसूस होना बंद हो जाता है।

फ़िब्रोमाइल्जिया मेरे काम करने की क्षमता, मेरे रिश्तों, मेरे निजी जीवन, मेरे घूमने-फिरने, मिलने-जुलने — हर प्रकार की क्षमता पर सीधा असर डालता है लेकिन चूँकि ये अदृश्य है तो इसे कोई विकलांगता मानने को तैयार नहीं है। मनोसामाजिक विकलांगताओं में भी भारत में केवल स्किज़ोफ़्रेनिया और बाइपोलर डिसऑर्डर को ही शामिल किया गया है लेकिन अवसाद, जो आपकी जीने की इच्छा तक को समाप्त कर देता है, उसको कोई यहाँ विकलांगता नहीं मानता।

मिस्टर इंडिया की तरह हम एक अजीब से ग्रे में क़ैद हैं, कभी मेट्रो में किसी से सीट माँगी क्यूंकि उँगलियों और कन्धों में बैग थामने की ताक़त ख़तम हो गयी थी तो लोग अजीब तरीके से देखते हैं, कभी घर के किसी काम से छुट्टी चाही तो लोगों ने कामचोर बताया, कभी लिखने का अपना काम समय से नहीं कर पायी क्योंकि भयानक ब्रेन फोग था तो सबने कहा ये सब बहाने हैं।

हमारी लड़ाई सिर्फ हमारी अदृश्य विकलांगताओं से ही नहीं बल्कि इन क्रूरताओं और ग़लत मान्यताओं, जानकारी के अभावों से भी है।

मैं अब इसके बारे में बहुत बोलती हूँ, राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय मंचों पर लिखती हूँ, अंग्रेज़ी से अलग दूसरी भाषाओँ में ये जानकारी पहुँचाने की कोशिश करती हूँ क्योंकि ये दर्द अदृश्य ज़रूर हैं लेकिन ये सच हैं, इनसे मेरे और मेरे जैसे करोड़ों लोगों के जीवन दूभर हुए हैं। आपसे बस एक ही उम्मीद है — संवेदनशीलता!

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Vijendra
Vijendra
1 year ago

बढ़िया।

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