लेखक: भारती • नई दिल्ली की निवासी भारती पोलियो से प्रभावित हैं। वे एक शिक्षिका हैं और एक सरकारी स्कूल में पढ़ाती हैं।
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एक विकलांग व्यक्ति का जीवन सामान्य व्यक्ति की तुलना में अधिक चुनौतीपूर्ण होता है। विकलांगता उसके जीवन को अपेक्षाकृत अधिक कठिन बना देती है। सामान्य दिनचर्या की गतिविधियाँ भी उसके लिए जटिल हो जाती है। अपने रोजमर्रा के छोटे-छोटे कार्यों के लिए भी उसे जब दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है तो वह स्वयं को बहुत असहाय महसूस करता है।
वैसे तो विकलांग व्यक्तियों के मन में कहीं न कहीं एक टीस होती है कि काश… काश, मैं भी सामान्य होता या होती। जब सामान्य दिनचर्या के कार्य करने में कठिनाई होती है, मशक्कत करनी पड़ती है, दूसरों का सहारा लेना पड़ता है तो यह टीस और भी ज़्यादा बढ़ जाती है।
बचपन में जब संगी-साथी मज़ाक उड़ाते हैं, व्यंग्य कसते हैं तो उसके मन में असुरक्षा की भावना जन्म ले लेती है। वह हीनभावना का शिकार हो जाता है।
विद्यार्थी जीवन में शारीरिक अक्षमता की यह टीस कुछ ज़्यादा ही बढ़ जाती है। जब एक विकलांग विद्यार्थी चाह कर भी स्कूल के सांस्कृतिक समारोह में भाग नहीं ले पाता, खेल कालांश में चुपचाप गुमसुम एक कोने में बैठा दूसरे बच्चों को खेलता देख एक टक देखता रहता है। सोचो कि उसके बाल मन पर क्या बीतती होगी? क्या वह ईश्वर को, अपने भाग्य को नहीं कोसता होगा? क्या वह ईश्वर से यह नहीं पूछता होगा कि आखिर मैं ही क्यूँ… मेरे साथ ही ऐसा क्यूँ? सुबह की प्रार्थना के बाद जब सारे बच्चे पंक्ति बनाकर अपनी-अपनी कक्षाओं में जाते हैं तो ज़रा सोचो उस विकलांग बच्चे के मन पर क्या बीतती होगी जो पंक्ति में सबसे पीछे रह जाता है। सीढ़ियाँ चढ़ते या उतरते समय दूसरों को रास्ता दे देता है और कहता है कि आप जाओ… मैं तो धीरे-धीरे आऊँगा। एक सामान्य व्यक्ति उस स्थिति में उसकी मानसिक स्थिति का ज़रा-सा भी अंदाज़ा नहीं लगा सकता क्योंकि कहावत है न कि “वह क्या जाने पीर परायी, जिसके पैर ना फटी बिवाई “।
विवाह के पश्चात जहाँ सबकी परिस्थितियाँ बदल जाती है, वहीं विकलांगजन को नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, ख़ासकर तब अगर वह एक लड़की है। विवाह के बाद नये घर में जाना, वहाँ सबके साथ तालमेल बिठाना, नए माहौल में सामंजस्य बिठाना उसके लिए किसी पहाड़ पर चढ़ने से कम नहीं होता। जाने अनजाने में किये गए कटाक्ष उसके हृदय को चीर देते हैं। एक बार फिर वही पीड़ा उसे अंदर तक उद्वेलित कर देती है कि काश.. कभी ख़ुद को कोसती है और कभी अपने भाग्य को।
संतान के जन्म के बाद उसका सामना संतान के लालन पोषण की एक नई चुनौती से होता है। जो ख़ुद के कार्य करने में असमर्थ है, उसके ऊपर एक नन्ही-सी जान की और जिम्मेदारी आ जाती है। जब वह अपनी संतान को गोदी में उठाती है पर उसको लेकर चलने में डरती है कि कहीं उसको गिरा ना दे; तब उसके मन पर क्या बीतती होगी इसका अंदाज़ा सिर्फ़ एक विकलांग माँ ही लगा सकती है।
जब संतान किशोरावस्था में प्रवेश कर लेती है उस समय कुछ अलग ही तरह की चुनौतियाँ उसके सामने आकर खड़ी हो जाती हैं जिनका एक विकलांगजन को सामना करना पड़ता है। किशोर बच्चे के मन में कहीं न कहीं यह ख़्याल रहता है कि उसके माता-पिता सामान्य माता-पिता से भिन्न हैं। आजकल की चकाचौंध की दुनिया में किशोर बालक अपने विकलांग माता/पिता को दुनिया के साथ क़दम से क़दम मिलाता नहीं देख पाता। ऐसे में वह कुछ कहता तो नहीं पर माता-पिता समझ अवश्य जाते हैं। जब किशोर कहीं भी साथ जाने में इसलिये मना करता/करती है कि आप रहने दो मैं खुद चला जाऊँगा, आप साथ मत चलो; तो एक विकलांग माता/पिता के हृदय को कितना आघात पहुँचता होगा, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है। उसको पता है बालक के सहपाठी ज़रूर उसका मज़ाक उड़ाते होंगे या तंज कसते होंगे। ऐसी समस्या शारीरिक न होकर मानसिक हो जाती है जहाँ दोनों पक्ष मानसिक रूप से जूझ रहे होते है।
एक विकलांग व्यक्ति जब अपने शरीर से लडता-लड़ता थक जाता है तो सोचता है कि काश माँ के गर्भ में एक बार फिर से लौट जाऊँ। वहाँ उसे इन सबसे मुक्ति मिल सकेगी। मैंने अपनी स्वरचित कविता “उदर” के माध्यम से एक विकलांग व्यक्ति के मन की व्यथा को चित्रित करने का प्रयास किया है…
काश! लौट जाऊँ एक बार फिर से माँ के उदर में,
एक बार फिर से जी लूँ ज़िन्दगी बेफ़िक्री की, आज़ादी की।
जहाँ न तन की पीड़ा हो, न मन की व्यथा
न अतीत का साया, न वर्तमान की माया, न भविष्य की चिंता।
काश! लौट जाऊँ एक बार फिर से माँ के उदर में।
थक गयी हूँ ज़िन्दगी में चलते-चलते,
अब आराम करना चाहती हूँ।
जी भर के सोना चाहती हूँ…
एक बार फिर से जीना चाहती हूँ,
जी भर के अठखेलियाँ करना, स्वच्छन्द विचरण करना चाहती हूँ,
काश! लौट जाऊँ एक बार फिर से माँ के उदर में..
और मुझे पता है वह जगह न वर्तमान में है, न भविष्य में
वह जगह सिर्फ़ अतीत में है और वह जगह है – मेरी माँ का उदर।
काश! लौट जाऊँ एक बार फिर से माँ के उदर में…
बहुत गहराई से हर पक्ष को उकेरा गया है। बहुत हृदय स्पर्शी आलेख। बहुत बहुत शुभकामनाएं👌👌
बहुत ही हृदय स्पर्शी लेख है, भारती जी।