वह बड़े इत्मीनान से गुरु के सामने खड़ा था। गुरु अपनी पारखी नज़र से उसका परीक्षण कर रहे थे। नौ-दस साल का छोकरा। बच्चा ही समझो। उसे बाँया हाथ नहीं था। किसी बैल से लड़ाई में टूट गया था।
“तुझे क्या चाहिए मुझसे?” गुरु ने उस बच्चे से पूछा।
उस बच्चे ने गला साफ़ किया। हिम्मत जुटाई और कहा, “मुझे आप से कुश्ती सीखनी है।”
एक हाथ नहीं और कुश्ती लड़नी है? अजीब बात है!
“क्यूँ?”
“स्कूल में बाक़ी लड़के सताते है मुझे और मेरी बहन को। टुंडा कहते है मुझे। हर किसी की दया की नज़र ने मेरा जीना हराम कर दिया है गुरुजी। मुझे अपनी हिम्मत पर जीना है। किसी की दया नहीं चाहिए। मुझे ख़ुद की और मेरे परिवार की रक्षा करनी आनी चाहिए।”
“ठीक बात। पर अब मैं बूढ़ा हो चुका हूँ और किसी को नहीं सिखाता। तुझे किसने भेजा मेरे पास?”
“कई शिक्षकों के पास गया मैं। कोई भी मुझे सिखाने तैयार नहीं। एक बड़े शिक्षक ने आपका नाम बताया और कहा ‘वे ही सीखा सकते है क्योंकि उनके पास वक़्त ही वक़्त है और कोई सीखने वाला भी नहीं है’ ऐसा बोले वे मुझे।”
गुरूर से भरा जवाब किसने दिया होगा यह उस्ताद समझ गए। ऐसे अहंकारी लोगों की वज़ह से ही खल-प्रवृत्ति के लोग इस खेल में आ गए यह बात उस्ताद जानते थे।
“ठीक है। कल सुबह पौ-फटने से पहले अखाड़े में पहुँच जा। मुझसे सीखना आसान नहीं है यह पहले ही बोल देता हूँ। कुश्ती एक जानलेवा खेल है। इसका इस्तेमाल अपनी रक्षा के लिए करना। मैं जो सिखाऊँ उस पर पूरा भरोसा रखना और इस खेल का नशा चढ़ जाता है आदमी को। तो सिर ठंडा रखना। समझा?”
“जी उस्ताद। समझ गया। आपकी हर बात का पालन करूँगा। मुझे आपना चेला बना लीजिए।” मन की मुराद पूरी हो जाने के आँसू उस बच्चे की आँखो में छलक गए। उसने गुरु के पाँव छू कर आशीष लिया।
अपने एक ही चेले को सिखाना उस्ताद ने शुरू किया। मिट्टी रोंदी, मुगदर से धूल झड़कायी और इस एक हाथ के बच्चे को कैसे विद्या देनी है इसका सोचते-सोचते उस्ताद की आँख लग गई।
एक ही दाँव उस्ताद ने उसे सिखाया और रोज़ उसकी ही तालीम बच्चे से करवाते रहे। छह महीने तक रोज़ बस एक ही दाँव। एक दिन चेले ने उस्ताद के जन्मदिन पर पाँव दबाते हुए हौले से बात को छेड़ा।
“गुरुजी, छह महीने बीत गए, इस दाँव की बारीकियाँ अच्छे से समझ गया हूँ और कुछ नए दाँव पेंच भी सिखाइए ना। ”
उस्ताद वहाँ से उठकर चल दिए। बच्चा परेशान हो गया कि गुरु को उसने नाराज़ कर दिया।
फिर उस्ताद की बात पर भरोसा करके वह सीखता रहा। उसने कभी नहीं पूछा कि और कुछ सीखना है।
गाँव में कुश्ती की प्रतियोगिता आयोजित की गई। बड़े-बड़े इनाम थे उसमें। हरेक अखाड़े के चुने हुए पहलवान प्रतियोगिता में शिरकत करने आए। उस्ताद ने चेले को बुलाया। “कल सुबह बैल जोत के रख गाड़ी को। पास के गाँव जाना है। सुबह कुश्ती लड़नी है तुझे।”
पहली दो कुश्ती इस बिना हाथ के बच्चे ने यूँ ही जीत ली। जिस घोड़े के आखिरी नम्बर पर आने की उम्मीद हो और वह रेस जीत जाए तो रंग उतरता है वैसा सारे विरोधी उस्तादों का मुँह उतर गया। देखने वाले अचरज में पड़ गए। बिना हाथ का बच्चा कुश्ती में जीत ही कैसे सकता है? किसने सिखाया इसे?”
अब तीसरी कुश्ती में सामने वाला खिलाड़ी नौसिखिया नहीं था। पुराना जांबाज़। पर अपने साफ़ सुथरे हथकंडों से और दाँव का सही तोड़ देने से यह कुश्ती भी बच्चा जीत गया।
अब इस बच्चे का आत्मविश्वास बढ़ गया। पूरा मैदान भी अब उसके साथ हो गया था। मैं भी जीत सकता हूँ, यह भावना उसे मज़बूत बना रही थी।
देखते ही देखते वह अंतिम बाज़ी तक पहुँच गया।
जिस अखाड़े वाले ने उस बच्चे को इस बूढ़े उस्ताद के पास भेजा था, उस अहंकारी पहलवान का चेला ही इस बच्चे का आखिरी कुश्ती में प्रतिस्पर्धी था।
यह पहलवान उसकी उम्र का होने के बावजूद शक्ति और अनुभव में इस बच्चे से श्रेष्ठ था। कई मैदान मार लिए थे उसने। इस बच्चे को वह मिनटों में चित कर देगा यह स्पष्ट था। पंचों ने राय मशवरा किया।
“यह कुश्ती कराना सही नहीं होगा। कुश्ती बराबरी वालों में होती है। कुश्ती का यह मुकाबला मानवता और समानता के अनुसार रद्द किया जाता है। इनाम दोनों में बराबरी से बाँटा जाएगा।” पंचों ने अपना मंतव्य प्रकट किया।
“मैं इस कल के छोकरे से कहीं ज़्यादा अनुभवी हूँ और ताकतवर भी। मैं ही ये कुश्ती जीतूंगा यह बात सोलह आने सच है। तो इस कुश्ती का विजेता मुझे बनाया जाए।”, वह प्रतिस्पर्धी अहंकार में बोला।
“मैं नया हूँ और बड़े भैया से अनुभव में छोटा भी। मेरे उस्ताद ने मुझे ईमानदारी से खेलना सिखाया है। बिना खेले जीत जाना मेरे उस्ताद की तौहीन है। मुझे खेल कर मेरे हक़ का जो है वो दीजिए। मुझे ये भीख नहीं चाहिये।”, उस बांके जवान की स्वाभिमान भरी बात सुन कर जनता ने तालियों की बौछार कर दी।
ऐसी बातें सुनने को अच्छी पर नुकसानदेह होती है। पंच हतोत्साहित हो गए। कुछ कम ज़्यादा हो गया तो? पहले ही एक हाथ खो चुका है अपना और कुछ नुक़सान ना हो जाए? मूर्ख कहीं का!
लड़ाई शुरू हुई।
और सभी उपस्थित अचंभित रह गए। सफ़ाई से किए हुए वार और मौके की तलाश में बच्चे का फेंका हुआ दाँव उस बलाढ्य प्रतिस्पर्धी को झेलते नहीं बना। वह मैदान के बाहर औंधे मुँह पड़ा था। कम से कम परिश्रम में उस नौसिखिए बच्चे ने उस पुराने महारथी को धूल चटा दी थी।
अखाड़े में पहुँच कर चेले ने अपना मेडल निकाल कर उस्ताद के पैरों में रख दिया। अपना सिर उस्ताद के पैरों की धूल माथे लगा कर मिट्टी से सना लिया।
“उस्ताद, एक बात पूछनी थी। ”
“पूछ।”
“मुझे सिर्फ़ एक ही दाँव आता है। फिर भी मैं कैसे जीता?”
“तू दो दाँव सीख चुका था। इसलिए जीत गया।”
“कौन से दो दाँव उस्ताद?”
पहली बात, तू यह दाँव इतनी अच्छी तरह से सीख चुका था कि उसमें गलती होने की गुंजाइश ही नहीं थी। तुझे नींद में भी लड़ाता तब भी तू इस दाँव में गलती नहीं करता। तुझे यह दाँव आता है यह बात तेरा प्रतिद्वंद्वी जान चुका था, पर तुझे सिर्फ़ यही एक दाँव आता है यह बात थोड़ी उसे मालूम थी?”
“और दूसरी बात क्या थी उस्ताद?”
“दूसरी बात ज़्यादा महत्त्व रखती है। हरेक दाँव का एक प्रतिदाँव होता है। ऐसा कोई दाँव नहीं है जिसका तोड़ ना हो। वैसे ही इस दाँव का भी एक तोड़ था।”
“तो क्या मेरे प्रतिस्पर्धी को वह दाँव मालूम नहीं होगा?”
“उसे मालूम था। पर वह कुछ नहीं कर सका। जानते हो क्यों?… क्योंकि उस तोड़ में दाँव देने वाले का दूसरा हाथ पकड़ना पड़ता है। तेरे दूसरा हाथ था ही नहीं, जिसे वह पकड़ सकता।”
अब आपके समझ में आया होगा कि बिना हाथ का एक साधारण-सा लड़का विजेता कैसे बना?
जिस बात को हम अपनी कमजोरी समझते हैं, उसी को जो हमारी शक्ति बना कर जीना सिखाता है, विजयी बनाता है, वही सच्चा उस्ताद है।
अंदर से हम सब कहीं ना कहीं कमजोर होते है, विकलांग होते है। उस कमजोरी को मात दे कर जीने की कला सिखाने वाला गुरु हमें चाहिए।
एक कहानी याद आ गई, जिसमें वनचर बलि देने के लिए एक व्यक्ति को पकड़कर ले जाते हैं, किन्तु सिर्फ़ इसलिए बलि नहीं दे पाते हैं क्योंकि उस व्यक्ति की उँगली थोड़ी सी कटी हुई थी।