लेखक: भारती • नई दिल्ली की निवासी भारती पोलियो से प्रभावित हैं। वे एक शिक्षिका हैं और एक सरकारी स्कूल में पढ़ाती हैं।
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ज़िन्दगी से काफी शिकायतें हैं पर अगर कुछ अच्छे दोस्तों का साथ मिल जाए तो विकलांगजन के लिए ज़िन्दगी थोड़ी आसान हो जाती है। मुझे भी कुछ ऐसे दोस्तों का साथ मिला जिन्होंने मेरी ज़िन्दगी थोड़ी आसान बना दी। मुझे एक ऐसे सहकर्मी का साथ मिला जिससे मेरी ज़िन्दगी में बहुत बड़ा बदलाव आ गया।
मैं कहीं भी आने-जाने के लिए हमेशा दूसरों पर निर्भर रहती थी। चाहे विद्यार्थी जीवन रहा, कॉलेज के दिन या ट्रेनिंग के दिन, मुझे आने-जाने के लिए हमेशा किसी के साथ की ज़रूरत पडती थी। जहाँ शादी से पहले यह साथ मेरे पापा ने दिया, वहीं शादी के बाद यह ज़िम्मेदारी मेरे पति के कंधों पर आ गयी।
शादी के बाद मेरे लिए एक ड्राइवर की व्यवस्था कर दी गयी जो मुझे घर से स्कूल छोड़ आता और छुट्टी के बाद वापिस घर ले आता। जब भी कभी ड्राइवर भैया को देर होती, मैं उन्हें फ़ोन करके पूछती “कहाँ रह गए आप?” मैं पूर्णतः उन पर निर्भर हो गयी थी। कई बार अपनी बेबसी पर क्रोध भी आता था। कई साल इसी बेबसी और निर्भरता में निकल गए।
एक दिन जब सभी सहकर्मी छुट्टी के पश्चात अपने-अपने घर के लिए निकल रहे थे, मैं वहीं स्कूल के गेट पर खड़ी ड्राइवर भैया का इंतज़ार कर रही थी। तभी मेरी एक सीनियर सहकर्मी मेरे पास आयी और बोलीं “तू स्कूटी क्यूँ नहीं ले लेती? कब तक दूसरों का मुँह ताकेगी?” मेरे पास कोई जवाब नही था क्योंकि यह तो मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मैं ख़ुद भी ड्राइव कर सकती हूँ।
उस दिन शाम को मैंने पतिदेव से इस बारे में ज़िक्र किया तो उन्होंने स्कूटी लेने के लिए साफ़ मना कर दिया। उनका कहना था “स्कूटी बिना तेरा कौन-सा काम रुका हुआ है? कार के साथ तुझे ड्राइवर दे तो रखा है।” उनके जवाब ने मेरी बोलती बंद कर दी। जब मैंने अपनी सीनियर सहकर्मी को बताया कि घर वालों ने मना कर दिया तो वे बोलीं “मैं तेरे साथ हूँ, तुझे जिस भी मदद की ज़रूरत पड़ेगी मैं तेरा साथ दूँगी।” उन्होंने तो साथ देने की बात कह दी पर मैं ख़ुद को मानसिक तौर पर तैयार नहीं कर पा रही थी। कई दिन इसी उलझन में निकल गए।
अंत में जीत दिमाग की हुई कि कब तक दूसरों पर निर्भर रहूंगी। मैंने अपनी सीनियर सहकर्मी से कहा कि मैम मैं आपको पैसे दे दूंगी,आप मेरे लिए स्कूटी ले आइये परंतु मैम बोली “मैं चाहती हूं कि तू साथ चल, अपनी मर्जी की स्कूटी पसंद कर। ख़ुद की पसंद की हुई चीज़ की बात ही कुछ और होती है।” एक हफ़्ते बाद हम पास के एक शोरूम में गए और स्कूटी पसंद करके खरीद ली।
स्कूटी तो घर पर आ गई लेकिन अगली समस्या थी कि इसको चलाऊँगी कैसे? जब भी मैं पतिदेव से कहती कि स्कूटी मॉडिफाई करवा दो, जवाब मिलता “करवा दूँगा, एक-दो दिन में करवा दूँगा।” एक-दो दिन कब दो महीनों में बदल गए पता ही नहीं लगा क्योंकि पतिदेव भी मन ही मन चाहते थे कि मैं स्कूटी न चलाऊँ।
आख़िरकार स्कूटी मॉडिफाई करवाने की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं मैम के कंधो पर आ गयी। उन्होंने पूछताछ करके पता लगाया कि स्कूटी कहाँ पर मॉडिफाई होती है। मैम ने कहा “चल, दोनों चलते हैं और स्कूटी को मॉडिफाई करवा कर लाते हैं। मैं चाहती हूँ कि तू ख़ुद देखे, जैसे तूने स्कूटी ख़ुद पसंद की वैसे ही साथ चल और अपनी स्कूटी को मॉडिफाई करवा।” एक दिन समय निकाल कर हमने स्कूटी मॉडिफाई करवा ली।
जब शाम को पतिदेव घर आए और उन्होंने मोडिफाइड स्कूटी देखी तो उनका पारा सातवें आसमान पर था। कुछ दिनों तक तो उन्होंने मुझसे बात भी नहीं की। जब स्कूटी चलाना सिखाने की कहती तो कहते “जैसे स्कूटी ख़ुद खरीद ली, मॉडिफाई करवा ली तो सीख भी ख़ुद ही ले।” आख़िरकार काफी समझाने पर वे मान ही गए और रोज़ शाम को मुझे ख़ाली मैदान में स्कूटी चलाना सिखाने लगे। कुछ दिनों बाद मैं स्कूटी चलाना सीख गई परन्तु रोड पर और ख़ाली मैदान में स्कूटी चलाने में दिन-रात का फ़र्क होता है।
एक शाम को उन्होंने मुझसे कहा कि अब तुझे स्कूटी चलानी आ गई है। अब गलियों में धीरे-धीरे चला कर प्रैक्टिस कर, उसके बाद बिज़ी रोड पर चलाना; पर किस्मत को शायद कुछ और ही मंज़ूर था। इससे पहले कि मैं व्यस्त रोड पर स्कूटी चलाती हम दोनों का एक्सीडेंट हो गया।
एक्सीडेंट कैसे हुआ इसके पीछे भी एक छोटी-सी कहानी है। मैं गलियों में स्कूटी चलाने की प्रैक्टिस हमेशा बीस की स्पीड पर करती थी। एक दिन इन्होंने कहा “कितने दिन हो गए, कब तक बीस की स्पीड से चलाएगी, थोड़ा स्पीड बढ़ा कर चलाया कर।” मैं तीस से चालीस की स्पीड पर स्कूटी चलाने लगी। तभी आगे जा कर एक मोड़ आया, चूँकि स्कूटी की स्पीड ज़्यादा थी तो स्कूटी आगे जाकर टकरा गयी और दुर्घटना हो गयी। पहले मैं गिरी, फिर ये और हम दोनों के ऊपर स्कूटी गिर गयी। इसके बाद का मुझे कुछ याद नही, बस धुंधली-सी यादें हैं कि मेरे सिर से ख़ून टपकता हुआ गर्दन तक आ गया थाख, इनके हाथ ख़ून से सने थे और ये किसी को मदद के लिए आवा्ज़ लगा रहे थे। इसके बाद मैं बेहोश हो गयी। जब होश आया तो देखा कि मेरे सिर और इनकी आँख पर पट्टी बँधी थी। मेरे सिर के पिछले हिस्से में चोट लगने के कारण मुझे छः टाँके आये और इनकी आँख के ऊपर तीन टाँके लगे थे। डॉक्टर कह रहा था कि भगवान का शुक्रिया अदा करो, आँख बाल-बाल बची है। अस्पताल से जब घर आये तो हाल-चाल पूछने वालों का सिलसिला शुरू हो गया। मैं इनसे कहती “मुझे कुछ भी याद नहीं कि हमारा एक्सीडेंट कैसे हुआ। कौन हमें हॉस्पिटल लेकर गया, मुझे कुछ भी याद नहीं आ रहा।” ये कहते कि डॉक्टर ने दिमाग पर ज़ोर देने से मना किया है, थोड़े दिन में सब याद आ जाएगा।
इस हादसे के बाद तो जैसे मेरी हिम्मत ही जवाब दे गयी। स्कूटी चलाना तो दूर जब भी ये थोड़ी तेज़ कार चलाते, डर के मारे मेरी जान निकल जाती। आँखों के सामने वही दृश्य आ जाता। मैंने तो इनको यह तक कह दिया था “स्कूटी के साइड वाले पहिये हटवा कर आप ही इसे चला लीजिये, मैं नहीं चलाऊँगी।”
इस हादसे से उबरने के बाद और सेहत में सुधार होने पर जब स्कूल गयी तो मैम ने कहा “ऐसे हार नहीं मानते, मैं तुझे स्कूटी सिखाउँगी।” मैंने हिम्मत हार ली थी पर उन्होंने नहीं हारी। वे रोज़ सुबह अपने घर से पहले मेरे घर आती, फिर हम दोनों स्कूटी से स्कूल जाते। इसी तरह छुट्टी के बाद पहले वे मुझे घर छोड़तीं, उसके बाद अपने घर जाती। मैं पूरे रास्ते स्कूटी चलाती और वे पीछे बैठी मेरा मार्गदर्शन करतीं। यह सिलसिला दो हफ़्ते तक चला। आख़िर उनकी मेहनत रंग लायी और मैं पूरे आत्मविश्वास से स्कूटी चलाना सीख गयी। ऐसा लगा जैसे मेरे सपनों को पंख लग गए।
कार से स्कूटी तक का मेरा सफ़र बहुत रोमांचक और चुनौतियों से भरा था। मैंने मैम को कोटि-कोटि धन्यवाद दिया। उनके बिना यह सब संभव नहीं था। ऐसी बात नही थी कि मेरे घर स्कूटी खरीदने वाला कोई नहीं था या सिखाने वाला कोई नहीं था। कमी बस साथ देने वाले की थी, मानसिक और भावनात्मक सहारा देने की थी। यह सहारा मुझे मैम से मिला जिन्होंने हर कदम पर मेरा साथ दिया, मेरा मनोबल बढ़ाया। परिणामस्वरूप मेरे जीवन में ऐसा बदलाव आया जिसकी मैंने सपने में भी नहीं सोची थी।
ऐसा लगा जैसे आपने मेरे जीवन से कुछ पन्ने चुराकर इस लेख में डाल दिए हों।
बहुत प्रेरणादायक कहानी
जीवन में मदद करने वालो से ज्यादा सहयोग करने वालों की ज़रूरत होती है। आपका लेख बहुत प्रेरणादायी है।
बहुत ही अच्छा लेख है, ऐसा लगा मानो एक बेहतरीन मूवी का कोई सीन हो।
बहुत प्रेरणादायक कहानी…. आपकी कार से स्कूटी तक का सफर तय करने की कहानी को पढ़ते – पढ़ते मुझे अपनी जिंदगी की कहानी याद आने लगी कि कैसे मैं भी स्कूल टाइम से लेकर नौकरी तक कही आने जाने के लिए घर वालो पर और ऑटो वाले भैया पर निर्भर रहना पड़ता था जिस कारण से कही आना जाना न के बराबर ही होता था।
घर वाले स्कूटी लेने के लिए कहते थे और मैं भी सोचता था कि अगर स्कूटी ले लिया जाय तो कही आने जाने के लिए काफी आसान हो जायेगा, लेकिन समय धीरे धीरे बीतते चला गया जो पता ही नहीं चला, फिर स्कूटी लेने का ध्यान ही नहीं दिया। क्युकी हर काम हो ही जाता था। और मैं अपनी पढ़ाई में ही लगा रहा।
फिर मैंने अपनी स्कूटी रेलवे में नौकरी लगने के 6 साल बाद ली क्युकी मेरी पोस्टिंग दूर हो गई थी और फिर घर के पास ट्रांसफर करवाने में समय लग लगा और उसके बाद COVID आने के कारण नहीं ले पाया , फिर वर्ष 2022 में स्कूटी ली और वो दिन मेरे लिए काफी ख़ुशी का दिन था क्युकी अब मैं कही आने जाने के लिए स्वतत्र था। स्कूटी लेने के बाद ये सोचा की सीखने में कितना समय लगेगा और रोड पर कैसे चलूँगा क्युकी कही न कही मन में डर था।
मेरे स्कूटी सीखने में सबसे बड़ा सहयोग मेरे बड़े भैया का है क्युकी उन्होंने मुझे हफ्ते भर में स्कूटी चलना सीखा दी और उन्होंने ही मेरे अंदर वो कॉन्फिडेंस बढ़ाया की धीरे धीरे चलाओ डर अपने आप कम हो जायेगा और फिर मैं कुछ ही दिनों में ख़ुद से ही चलाने लगा। और फिर हर जगह स्कूटी से जाने लगा…