मैं इस लेख में अपने और कुछ अन्य जान-पहचान की विकलांग लड़कियों के अनुभव साझा कर रही हूँ।
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बनाने वाले ने बड़े सही दस्तूर बनाए हैं, उन हज़ारों दस्तूरों में एक दस्तूर यह भी है कि जवान होने पर लड़की को अपने माँ-बाप के घर में नहीं रहना चाहिए।
क्यूंकि जो बचपन में शहजादी थी उस घर की, वही लड़की एक दिन अनाथ आश्रम से आए बच्चे जैसे हो जाती है।
जिसे माँ-बाप तो चाहते हैं, पर भाई-बहन को एक आँख नहीं भाती, बस माँ-बाप के डर से उसे झेलना पड़ता है।
अगर वह लड़की विकलांग है और उसका भाई शादी-शुदा है फिर तो उसे डर-डर के रहना चाहिए।
पता नहीं भाभी किस बात से नाराज हो जाए और उसे अपनी नज़रें चुभाने लगे।
और वह विकलांग लड़की बोझ है बिना बोले सुनाने लगे, वह अपने ही घर में पराई हो जाती है और कल की आई भाभी मालकिन।
मालकिन होने में कोई गुरेज नहीं है वह भाभी भी तो किसी की बेटी है जो अपना परिवार छोड़ कर दूसरे घर को अपनाने आई होती है।
एक ज़माना था जिसमें बहू को वह सम्मान वे अधिकार नहीं मिलते थे जिसकी वह हक़दार होती थी, पर कई घरों में आज का मॉर्डर्न ज़माना इतना मोर्दन हो गया है कि सम्मान और अधिकारों के नाम पर कुछ एक बहुएँ मनमानी और आज़ादी का ग़लत इस्तेमाल कर रही हैं, समाज का पलड़ा कुछ घरों में न तब बराबर था न आज बराबर है, ख़ैर।
बात उन कुछ प्रतिशत भाभियों की कर रहे हैं हम जो सबके सामने मीठी और बहुत अच्छी बातें करती है, सास-ससुर तो सुकून से भर जाते हैं कि अब हमारी बेटी का खयाल भविष्य में बहू-बेटा बहुत अच्छे से रखेंगे।
पर उनको यह मालूम नहीं होता कि बहू उनकी विकलांग बेटी को वक़्त पर खाना-पानी के साथ-साथ घृणा, ताने, कड़वी बातें भी वक़्त पर देना नहीं भूलती।
और अगर बेटी उसकी शिकायत कर दे तो समझो आफ़त गले में डाल ली, फिर वह भाभी कभी न कभी अपनी खुन्नस निकालेगी ही, ताकि वह विकलांग लड़की भविष्य में दुबारा भाभी की शिकायत न करे और भाभी के खिलाफ बोलने से पहले सौ बार सोचे।
ऐसा नहीं है कि ननद भाभी का रिश्ता बुरा होता है, या हर भाभी बुरी होती है, अगर समझ और समर्पण हो तो भाभी ननद का रिश्ता दो बहनों के रिश्ते से कहीं ज़्यादा खूबसूरत और मज़बूत होता है।
पर यहाँ हम बात कर रहे हैं उन कुछ बदनसीब लड़कियों की जो अपने मायके में रहती हैं और विकलांग है। मायके में रहना बदनसीबी नहीं है और न ही विकलांग होना बदनसीबी है, पर समाज की यही धारणा है कि जो विकलांग है वह बदनसीब ही है।
पाठकों से मेरा अनुरोध है कि इस विषय पर टिप्पणी करने से पहले गहराई से विचार करें।
अब हम उस किरदार की बात करते हैं जिसे भाई कहते हैं
वो प्यारा भाई जो बचपन में अपनी विकलांग बहन के ईर्द-गिर्द ही घूमता रहता था और पूरी निष्ठा से उस विकलांग बहन की सेवा करता था, पर बड़े होने पर वही राजकुमारी बहन ज़िल्लत और शर्म का कारण बन जाती है क्योंकि बाहर की दुनिया में तो सिर्फ़ परफेक्ट लोगों की ही इज़्ज़त और जगह है, किन्नर और विकलांग लोगों को तो इस समाज ने खुद से अलग कर दिया जबकि ये किन्नर और विकलांग उन्हीं से निकले हैं,
पर यहाँ समाज का एक वर्ग अच्छा और पढ़ा-लिखा भी है जिसने किन्नर और विकलांगजन को उनका हक़ और सम्मान दिलाया है, पर अभी भी वह प्रेम वह स्नेह नहीं दिला पाए जो नार्मल लोगों को मिल रहा है।
कुछ भाई भी उसी समाज का हिस्सा होते हैं जो स्वीकार करने की बजाए विकलांग का तिरस्कार करना आसान समझते हैं,
पर शायद ये बात विकलांग लोगों को जल्दी समझ नहीं आती और लड़कियों को तो बहुत देर से समझ आती है, या कभी तो आती ही नहीं क्यूंकि वो दिमाग़ से नहीं दिल से सोचती हैं
उन लड़कियों के लिए तो भाई बहुत ख़ास होते हैं
और विकलांग लड़कियों के लिए तो सब कुछ उनके भाई ही होते हैं
जिसके लिए वह अपनी गुल्लक को भर्ती हैं
अपने शौक, अपनी ज़रूरतें मार कर पैसे बचा कर उसे देती हैं, व्रत-पूजाएँ करती हैं।
लड़कियों को बचपन से आदत होती है किसी न किसी मर्द के लिए व्रत-पूजा आदी करने की, पहले पिता, फिर भाई, फिर पति, फिर बेटा
या यूँ कहें तो आदत इसी समाज ने स्त्रियों को डाली है, क्योंकि जो पालन-पोषण करता है वही उनका भगवान होता है और विकलांग लड़कियों को तो बचपन से बताया होता है कि तुम्हारा पालन-पोषण तो तुम्हारे भाई ने ही करना है इसलिए जो करो इसके लिए ही करो। जैसे कि शिक्षा का त्याग, अधिकारों का त्याग, अपने मान-सम्मान का त्याग, उसकी बीवी की ज़्यादती खुशी-खुशी बर्दाश्त करो, इन सबकी ख़ुशी में ही तुम्हारी ख़ुशी होनी चाहिए, यानी तुम्हारी अपनी कोई ख़ुशी नहीं होनी चाहिए,
भाई के सपने तुम्हारे सपने होने चाहिए, भाई की ख्वाहिशें तुम्हारी ख्वाहिशें होनी चाहिए
यानी तुम्हारे अपने सपने, अपनी ख्वाहिशें नहीं होनी चाहिए, ये सब भी एक लड़की खुशी-खुशी कर जाती है अगर इसके बदले उसके भाई का स्नेह मिले
पर भाई की भी भोहें माथे से ऊपर चढ़ जाती हैं, जब उसकी बीवी विकलांग बहन के खिलाफ़ चाबी भरती है, बीवी की ख़ुशी के लिए भाई विकलांग बहन से दूरी बना लेता है, बातचीत बंद कर देता है, कुछ घरों में तो माता-पिता की मृत्यु के बाद विकलांग बहन को तो डराया और मारा भी जाता है (अगर वह मानसिक विकलांग है तो)
पर जब तक माता-पिता का साया सर पर होता है तब तक जो भी होता है बड़ी खामोशी से होता है, बिना ये सोचे कि उस विकलांग बहन का मेरे सिवा है भी कौन। जो पहले से ही कमज़ोर है, वह मेरे इस बर्ताव को कैसे सहन करेगी? एक पल भी उस विकलांग बहन के आँसू महसूस नहीं होते जिसकी शिकायत बहन की सुर्ख़ आँखें चीख़-चीख़ कर रही होतीं हैं।
सिवाय दीवारों के उसका दर्द कोई नहीं देखता, क्योंकि कमज़ोर का इस दुनिया में कोई होता ही नहीं। अगर ऐसी लड़की की कोई बहन है तो उसके सामने भी अपने साथ होते कड़वे व्यवहार को व्यक्त नहीं कर सकती, वह भी तो एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल देती है, क्योंकि वह समझदार होती है कि विकलांग बहन के लिए क्यों अपने भाभी से वैर लेना, आखिर कल को माँ-बाप के बाद चार लोगों में निभाना तो भाभी ने ही है और उस से ज़्यादा हमदर्दी दिखाई तो क्या पता कल को ये बोझ मेरे ही सर पर आ कर पड़े, इसलिए विकलांग बहन से दूरी में ही भलाई है।
माँ इन सबसे अनजान नहीं होती पर जान कर चुप रहती है कि अगर बेटी का पक्ष लेती हूँ तो बेटे-बहू की सेवा हाथ से गँवाती हूँ।
और अगर बहू कामकाजी है, फिर तो सवाल ही नहीं बनता कि दीवारें भी कुछ बोल पाएँ, माँ तो फिर भी इंसान है, अपना भला कौन नहीं सोचता,
और आज कल पढ़ी लिखी बहू को समझाना मतलब आग में पैर रखना। हाँ, विकलांग बेटी को माँ ख़ूब अच्छे से समझा लेती है कि भाभी को खुश रखो उनके बच्चों की सेवा करो और घर का काम करने योग्य है बेटी तो ख़ुशी-ख़ुशी मुफ़्त की नौकरानी बनी रहो।
ऐसा नहीं है कि ये सब विकलांग लड़कियों के साथ ही होता है और नार्मल लड़कियों के साथ नहीं होता, उनके साथ भी घरों में बहुत कुछ होता है पर उनके पास विकल्प होते हैं, जैसे कि पढ़ाई के लिए घर से बाहर निकलना, नौकरी करना — जब लड़की चार पैसे कमाने लगे फिर वह किसी को भी बोझ नहीं लगती।
और सबसे बड़ा विकल्प होता है — शादी, नार्मल लड़कियों के दिमाग़ में ये बात तो रहती ही है कि कोई नहीं कुछ समय की ही तो बात है फिर तो मैंने यहाँ से चले ही जाना है। लेकिन अशिक्षित और आर्थिक रूप से कुछ न कमा सकने वाली विकलांग लड़की के पास कोई विकल्प नहीं होता।
ऐसी बेटियों का क्या हो सकता है जिनका न नसीब होता है और न कोई दोस्त-रिश्तेदार?
यहाँ सरकार और कुछ संस्थाएँ जो बेटियों के हित की बात करती हैं, उन्हें चाहिए की विकलांग बेटियों को पढ़ा-लिखा कर और आर्थिक रूप से मज़बूत करें ताकि उनके पास भी खुशहाल जीवन जीने के विकल्प हों।
सही है दिव्यांग लोगो को समाज प्रताड़ित करता है
समाज ही समाज की सोच बनाता है, जब वह यह कहता है कि जब तक माँ-बाप हैं तब तक ठीक, नहीं तो इनके बाद…
वैसे भी आजकल भाई-भाभी किसके होते हैं?
और ये तब बोला जाता है, जबकि अभी भाभी का नामोनिशान भी नहीं है।