जब मैं याददाश्त वाली हुई, मैंने देखा मेरे पूरे गाँव में, रिश्तेदारी में और जान-पहचान में, मैं ही ऐसी एकलौती थी जो सबसे अलग थी। सबसे अलग अर्थात् जिसे सब अपाहिज या अपंग कहते थे। वो ऐसा इसलिए नहीं कहते थे कि वो मेरा मजाक उड़ाते थे या व्यंग्य कसते थे। वो ऐसा इसलिए बोलते थे, क्योंकि उन लोगों को नहीं पता था कि इससे सुंदर शब्द क्या हो सकता है? और है भी तो नहीं, सिवा पीडब्ल्यूडी के! और पीडब्ल्यूडी को भला गाँव के सादे लोग क्या जानें? और जो कहते भी तो, मैं कौन-सा समझती!
मैं स्वयम् भी खुद को सबसे अलग ही समझती थी, क्योंकि मैंने दुनिया नहीं देखी थी, तो मैं जानती ही नहीं थी कि दुनिया में कहीं कोई मेरे जैसा भी होगा। मैं नहीं जानती थी कि दुनिया में और भी कई तरह की विकलांगताएँ होती हैं, इसकी और भी कई श्रेणियाँ हैं। फिर, कुछ बड़ी होने पर विकलांगता की कुछ 4-5 श्रेणियाँ जान पाई, लेकिन अभी भी बहुत कुछ जानना बाकी था।
अभी कुछ समय पहले मैं टाटा स्टील फाउंडेशन द्वारा संचालित सबल में एक महीने के लिए इम्प्लॉइबिलिटी फाउंडेशन ट्रेनिंग लेने गई। वहाँ पर मैंने ट्रेनिंग में जो सीखा, सो सीखा। लेकिन वहाँ उससे अलग भी बहुत से नये अनुभव मैंने पाये। मैंने वहाँ पर विकलांगता के विषय में वर्कशॉप, पुस्तकों, वीडियो और गेस्ट ट्रेनर्स के द्वारा बहुत सारी नई जानकारियाँ पाईं। मैंने महसूस किया कि मैं स्वयम् विकलांग होते हुए भी, विकलांगता के विषय में कितना कम जानती थी। इसका क्या कारण था? शायद जागरूकता की कमी? हाँ! यही जागरूकता की कमी।
मैंने सबल में 21 प्रकार की विकलांगताओ के बारे में जाना और ये भी समझा कि अन्य किन बीमारियों को भी विकलांगता की सूची में शामिल होना चाहिए। एक दिन सबल में सिर्फ़ विकलांगों के लिए रोजगार मेला लगा था, जिसमें शहर भर के विकलांग आये। उसमें मैंने इतने तरह के विकलांग देखे, जैसा मैंने कभी अंदाजा भी नहीं लगाया था।
सबल में एक दिन मैम ने कहा कि “तुम लोग रोज क्लास करने आते हो लेकिन तुम एक-दूसरे को कितना जानते हो?” मैम के इस प्रश्न पर हम सभी एक-दूसरे को देखते हुए चुप ही रहे। दरअसल, हम एक-दूसरे के प्रति सिर्फ़ व्यवहारिक ही रहे, किसी का व्यक्तिगत कुछ पता नहीं था। मैम ने आगे कहा “यदि एक साथ रहते हुए भी, तुम एक-दूसरे को ही नहीं जानते/समझते, तो बाहर दुनिया में अपने जैसे लोगों को क्या ही समझ पाओगे? जब तक एक-दूसरे को समझोगे ही नहीं, तब तक तुम्हें ऐसा लगेगा कि तुम्हारा दर्द ही सबसे बड़ा दर्द है। दुनिया में अकेले सिर्फ़ तुम ही संघर्ष कर रहे हो। इसलिए, हमें एक-दूसरे को जानने के लिए एक स्टोरी सेशन करना होगा।”
अगले दिन हम सभी स्टोरी सेशन में समय से पहुँच गये थे। हम चारों ओर से बंद एक शांत और अंधेरे कमरे में एक गोलाकार में बैठ गए थे। अब इस सन्नाटे भरे माहौल में हमने बारी-बारी से अपनी-अपनी कहानियाँ सुनाईं। जब एक कहानी सुना रहा होता था, तब पूरा ग्रुप इतना शांत होकर सुनता, यूँ लगता जैसे किसी सिनेमाघर में कोई बायोपिक चल रही हो, यूँ, जैसे कोई बायोग्राफी पढ़ी जा रही हो। कहानी सुनाने वाला अपने जन्म से भी पहले (मेरे जन्म को लेकर घरवालों की क्या उम्मीदें थीं, क्या सपने थे) से लेकर फिर कैसे, कहाँ, किन परिस्थितियों में हमारा जन्म हुआ, कैसे बचपन बीता। हमारे क्या संघर्ष रहे, क्या सपने रहे, क्या जरूरतें और कैसे शौक रहे। हम क्या बनना चाहते थे, क्या बन गये हैं। कहाँ से चलना शुरू किया था, कहाँ पहुँचना था, कहाँ पहुँच गये हैं। इस सफर में किसने हमें तोड़ा, किसने मलहम लगाया। कौन हमारे आदर्श बनें, कौन नज़रों से गिर गये। कब घर के लोग पराये हुए, कब बाहर के अपने। हम कब टूटकर रोये या कब हमने ख़ुद को संभाला। ये कहानी सुनाते-सुनाते हम कभी उदास होते, कभी ख़ुश। कभी जोश आता तो कभी गंभीरता। कभी किसी पल क्रोध उभर आता तो अगले पल बहुत भावुक हो जाते। हमने एक-दूसरे की कहानियाँ सुनी, एक-दूसरे के दुःख-दर्द, संघर्ष को समझा। हम एक साथ हँसे, एक साथ रोये। एक-दूसरे को सांत्वना दी और एक-दूसरे को कहा “डोंट माइंड, हम हैं न!”
उस स्टोरी सेशन के बाद सभी ने स्वयम् को हल्का महसूस किया, सभी तरोताज़ा और प्रसन्न थे। खुश थे। अब हम व्यवहारिक नहीं थे, बल्कि एक-दूसरे के करीब आ गये थे। हम एक-दूसरे के भाई-बहन, मित्र-सहेली बन गये थे… और मुस्कुराते हुए उस कमरे से बाहर निकले।
Good one.🫰