अहमदाबाद मेट्रो में यात्रा का मेरा अनुभव

wheelchair facility in ahamdabad metro

यह लेख कलाराम राजपुरोहित द्वारा लिखा गया है। आप मोबाइल फ़ोन का व्यवसाय करते हैं। कलाराम दोनो पैर में पोलियों और वर्ष 2001 में एक ऑपरेशन के बाद से स्पाइनल कॉर्ड इंजरी से भी प्रभावित हैं।

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मैं पिछले कई दिनों से ड्राइविंग लाइसेंस के लिए इधर-उधर भटक रहा था क्योंकि मैं किसी एजेंट के ज़रिए लाइसेंस नहीं बनवाना चाहता था। एडेप्टिव ड्राइविंग लाइसेंस के लिए मेडिकल सर्टिफिकेट की ज़रूरत होती है जो सिर्फ़ डिस्ट्रिक्ट मेडिकल ऑफिसर ही दे सकता है। इसके लिए मैं वलसाड सिविल अस्पताल भी गया लेकिन मुझे वहाँ से भी मेडिकल सर्टिफिकेट नहीं दिया गया। आखिरकार मैंने हार मान ली और मंगलवार को मुझे एक एजेंट के ज़रिए अहमदाबाद से जाँच और डॉक्यूमेंट वेरिफिकेशन के बाद लर्निंग लाइसेंस मिल गया।

तब मैंने पहली बार मेट्रो में यात्रा की जो मेरे लिए बिल्कुल नई थी। अगर विकलांगता के दृष्टिकोण से कहूँ तो मेट्रो का अनुभव बहुत अच्छा था। यह भारतीय नियमित रेल सेवा से बिल्कुल विपरीत और अविश्वसनीय है, ऐसा लगा जैसे कि मैं किसी एयरपोर्ट पर हूँ। जैसे ही मैं मेट्रो के पास एंट्री पर पहुँचा, वहाँ लिफ्ट की सुविधा थी। मैंने लिफ्ट का उपयोग नहीं किया क्योंकि लिफ्ट सड़क के दूसरी तरफ थी। इसलिये मैं टेक्सी से सीधे ही सीढ़ियों के पास उतर गया। मुझे सड़क पार करके उस तरफ जाना उचित नहीं लगा क्योंकि लिफ्ट के लिए मुझे विपरीत दिशा में 100 मीटर चलना पड़ता इसलिए मैंने सीढियाँ से उतरना अधिक उचित समझा। जैसे ही मैं सीढिया से नीचे उतरा, वहाँ के कर्मचारियों ने मुझसे पूछा “क्या आप व्हीलचेयर लेना चाहेंगे?” मैंने कहा “हाँ, बिल्कुल।” उसके बाद कर्मचारियों ने कहा, 2 मिनट रुकिए, मैं आपके लिए यहीं व्हीलचेयर ले कर आता हूँ। उनके सवाल-जवाब में शिष्टता और शालीनता थी। ऐसा लग रहा था जैसे उन्हें इस काम और स्थिति के लिए प्रशिक्षित किया गया हो। उस कर्मचारी ने मुझे व्हीलचेयर पर बिठाया और टिकट काउंटर से मेट्रो के दरवाजे तक मेरा साथ दिया। ट्रेन के दरवाजे पर आकर उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं खुद मेट्रो के अंदर बैठना चाहूंगा या मैं आपको सीट तक छोड़ दूँ। क्योंकि मैं खुद अंदर जा सकता था इसलिये मैंने मना कर दिया। मेट्रो आने से पहले एक अन्य कर्मचारी भी मेरी मदद करने के लिए आया था। उसने मुझसे कहा “मैं आपके लिए ट्रेन रोकता हूँ आप आराम से अपनी सीट पर जाकर बैठ जाएँ।” क्योंकि आम तौर पर मेट्रो 10 या 15 सेकंड के लिए रुकती है जब तक कि यात्री चढ़ न जाएँ। साथ ही एक अन्य कर्मचारी ने मुझे बताया कि अगले स्टेशन पर आपके लिए व्हीलचेयर की व्यवस्था की गई है जो आपको लेने के लिए तैयार रहेगी। 20 मिनट बाद, जैसे ही मैं अगले स्टेशन पर पहुँचा, वहाँ पहले से ही एक कर्मचारी मेरे लिए व्हीलचेयर लेकर खड़ा था। वह मुझे वहाँ से बाहर टेक्सी स्टैंड तक छोड़ने आया।

इस दिन मैंने मेट्रो का दो बार सफ़र किया दोनों बार मुझे किसी भी तरह की कोई परेशानी नहीं हुई। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि मैं किसी भारतीय पब्लिक ट्रांसपोर्ट का उपयोग कर रहा हूँ – ऐसा लग रहा था कि कहीं मैं किसी दूसरे देश में तो नहीं आ गया!

भारतीय रेलवे को वाकई मेट्रो से बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है। जहाँ मेट्रो में टिकट काउंटर से लेकर अंदर सीट पर बैठने तक हर संभव मदद आदर के साथ दी जाती है। वहीं दूसरी तरफ भारतीय रेलवे में खाली नाम के लिए व्हीलचेयर की सुविधा तो है लेकिन उसका कोई फायदा नहीं है। विकलांगो और बुजुर्गों के लिए अलग से टिकट काउंटर हैं लेकिन वे हमेशा बंद रहते हैं। अगर गलती से किसी टिकट काउंटर पर शिकायत कर दि जाए कि ये काउंटर क्यों बंद है तो वो इस तरह से जवाब देते हैं जैसे वो किसी पर एहसान कर रहे हों और अगर आप स्टेशन मास्टर से उनकी शिकायत करने जाएँ तो वे भी बात को घुमा-फिरा कर टाल देते हैं। ये मैं अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ। ये सिर्फ मेरी शिकायत नहीं है, ऐसे और भी कई लोग हैं जिनकी ऐसी ही शिकायतें हैं जो शायद कभी सुनी ही नहीं जाएँगी। क्योंकि ये सारी शिकायतें ऊपर तक नहीं पहुँचाई जाती हैं, उन्हें स्टेशन पर ही खत्म कर दिया जाता है। जब तक विकलांगजन को दी जा रही सेवा का फीडबैक नहीं लिया जाएगा तब तक ये सुविधा बेकार ही रहेगी क्योंकि विकलांगजन तक ये पहुँचेगी ही नहीं। फीडबैक के लिए भी एक ऑनलाइन खुला मंच होना चाहिए ताकि कोई भी फीडबैक दे सके और कोई भी यह जान सके कि कितनी शिकायतें लंबित हैं।

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Anupama
Anupama
3 months ago

Good to read about such positive experience.
May this be the reality elsewhere as well!
Thanks for sharing🙏

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