अधीर न हों: संवेदनशील और सहनशील बनें

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एक दिन मुझे एक अनाथाश्रम में जाने का अवसर मिला। यह एक “अनाथालय+वृद्धाश्रम” था जहाँ मानसिक रूप से कमज़ोर और अन्य विकलांगता से प्रभावित लोग रहते थे। मेरी यहाँ जाने की बहुत दिन से इच्छा थी। मैं चाहती थी कि कभी इन सबके साथ समय बिता पाऊँ; क्योंकि इन सब के साथ तो मेरा एक मज़बूत रिश्ता भी है न… विकलांगता या असामान्यता का! सामान्य लोगों की नज़र में ये भी असामान्य हैं और मैं भी असामान्य हूँ! हम अपनी शारीरिक / मानसिक विकृतियों या असामान्यताओं के साथ सामान्य लोगों के बीच अपनी जगह बनाने की निरंतर कोशिशें कर रहे हैं; पर ये कोशिशें किस दिन रंग लाएँगी? यह एक सवाल ही बना हुआ है। ये कोशिशें शायद तब सफल हो पाएँगी जब प्रयास केवल विकलांगजन की तरफ़ से ही नहीं बल्कि दोनों (विकलांगजन+सामान्यजन) की तरफ़ से होंगे।

उस शाम को किसी काम से मैं अपने अटेंडेंट के साथ इस अनाथाश्रम में गयी; लेकिन वहाँ पहुँचने में मुझे कुछ देरी हो गयी और वहाँ लोगों से मिलने का समय ख़त्म हो चुका था। मैं कुछ उदास हो गयी कि मेरी वहाँ के लोगों से मिल पाने की इच्छा आज भी अधूरी ही रह जायेगी; लेकिन फिर भी अपना काम ख़त्म करने के बाद मैंने उन सबसे मिल पाने की एक कोशिश की। मेरी कोशिश सफल होगी इसकी मुझे कोई उम्मीद नहीं थी; लेकिन कहते है न…“जहाँ चाह, वहाँ राह” इसलिए मैंने वहाँ की वार्डन को अपनी यह इच्छा बताई और उन्होंने भी मेरी इच्छा का मान रखते हुए इसे पूरा करने में मदद दी। मैं, मेरे अटेंडेंट और वार्डन उस दरवाज़े की ओर चल दिए जिसके दूसरी तरफ़ मैं उन सबसे मिल पाती। चूँकि रात का खाना खा कर वहाँ सब अपने-अपने कमरों में आराम करने जा चुके थे इसलिये गार्ड ने मेन दरवाज़ा बंद कर दिया था। दरवाज़े को दुबारा खुलवाने में समय लग रहा था। कई कोशिशों के बाद भी जब दरवाज़ा नहीं खुल रहा था तो मैंने अपने अटेंडेंट और वार्डन से कहा कि रहने दीजिये दरवाज़ा मत खुलवाइये — सब आराम कर रहें होंगे। मैं फिर कभी आकर मिल लूँगी। यह भी तो निश्चित नहीं था न कि दरवाज़ा खुलने के बाद भी मैं किसी से मिल ही पाती। इसलिए दरवाज़ा खुलवाने को अब मैं मना कर रही थी; लेकिन वे दोनों लगातार कोशिश कर रहे थे।

मेरे अटेंडेंट स्वभाव से बहुत अच्छे और समझदार हैं। मेरे प्रति उनका व्यवहार मैंने हमेशा ही अच्छा महसूस किया है। मेरी विकलांगता को लेकर उन्हें असहज होते मैंने कभी भी नहीं देखा, यदि कभी शुरुआत में असहज हुए भी होगें तो अब वह मुझसे इतनी बार मिल चुके हैं कि उनकी असहजता ख़त्म हो चुकी है। जब हम किसी से बार-बार मिलते है तो उसको और उसके जीवन को समझने लगते है और फिर दो लोगों के बीच में असहजता की जगह आपसी ताल-मेल अपनी जगह बना लेता है। मेरे और मेरे अटेंडेंट के बीच यह ताल-मेल बन चुका है। वैसे भी विकलांगजन और सामान्य लोगों के बीच एक अच्छे ताल-मेल की बेहद ज़रूरत होती है।

मेरे अटेंडेंट लगातार दरवाज़ा खुलवाने की कोशिश कर रहे थे। वे नहीं जानते थे कि दरवाज़े के उस पार किस विकलांगता से प्रभावित लोग रहते होंगे। वे सोच रहे थे कि जिस विकलांगता (पोलियो) से मैं प्रभावित हूँ, उसी विकलांगता से मेरे बराबर या उससे कम-अधिक प्रभावित लोग ही दरवाज़े के उस तरफ़ होंगे। काफ़ी कोशिशों के बाद आखिरकार दरवाज़ा खुल ही गया और हम अन्दर जाने लगे। अचानक बिजली चली गयी और उस जगह पर थोड़ा अँधेरा हो गया। तभी एक लड़का सामने से आया और मुझे देखकर हँसते हुए थोड़ी उलझी हुई-सी आवाज़ में वार्डन से कुछ कहने लगा और हँसता रहा। वह मानसिक रूप से कमज़ोर होने के कारण अपनी बातों को ठीक से समझा नहीं पा रहा था या मैं ही उसकी बातों को ठीक से समझ नहीं पा रही थी; क्योंकि वार्डन उसकी बातो को आसानी से समझ रही थी। उन दोनों का आपसी ताल-मेल बन चुका था। मैं भी इतना तो समझ ही रही थी कि वह मेरे बारे में कुछ अच्छा ही बोल रहा था।

जैसे ही मेरे अटेंडेंट ने उस लड़के को देखा वे मुझे वहीं छोड़, कुछ अशांत से होकर उस रूम से बाहर चले गए और मेरा बाहर इंतज़ार करने लगे; चूँकि मैं अपनी व्हीलचेयर ख़ुद चला सकती हूँ तो उनके चले जाने से मुझे कोई परेशानी नहीं हुई; लेकिन उस लड़के के आते ही वे बाहर क्यों चले गए? यह सवाल ज़रूर मेरे मन में उभर आया था। मेरे अटेंडेंट बहुत अच्छे स्वाभाव के हैं — उनका इस लड़के को देख ऐसे बाहर चले जाना मुझे अख़र रहा था।

“वे बाहर क्यों चले गये?” इस सवाल के ज़वाब में मैं अलग-अलग क़यास लगाने लगी। क्या कम रोशनी वाले कमरे में उस लड़के से मेरे अटेंडेंट को डर लग रहा था? क्या वे उसकी मानसिक कमज़ोरी को पागलपन तो नहीं समझ रहे थे? क्या लड़के की मानसिक विकृति को उसके पिछले जन्म के कर्मों का फल मान उससे घृणा कर रहे थे? या लड़के को इस स्थिति में देख, भावुक हो ख़ुद को संभाल नहीं पा रहे थे? शायद इन्हीं में से किसी कारण से वे ख़ुद को उस जगह से ज़ल्द-से-ज़ल्द अलग कर लेना चाहते थे। इसी उधेड़-बुन में जाने कब मैं उस कमरे से बाहर आ गयी; लेकिन यह सवाल मेरे अन्दर ही रह गया।

किसी की सोच के बारे में अपनी ओर से कोई क़यास लगा लेना भी तो सही नहीं है। इसलिए इस सवाल का सही जवाब जानने के लिए आखिरकार एक दिन मैंने अपने अटेंडेंट से यह सवाल पूछ ही लिया; पर मन ही मन चाहती थी कि जो क़यास मैंने लगाये हैं वे सब ग़लत साबित हों। विकलांगजन को लेकर सामान्य लोगों की जो सोच होती है, मेरे अटेंडेंट की वैसी सोच न हो; लेकिन उन्होंने जो ज़वाब दिये, वे मेरे लगाये क़यासो से कुछ हद तक मेल खाते थे। अटेंडेंट उस लड़के की मानसिक विकृति को उसके पिछले जन्म के कर्मों का ही प्रतिफल मान रहे थे; लेकिन उनके मन में लड़के को लेकर कोई घृणा नहीं थी। वे लड़के की मानसिक स्थिति से बहुत भावुक हो अधीर महसूस कर रहे थे और कुछ पल भी उस कमरे में रुक पाना उन्हें नामुमकिन लग रहा था। वे इस बात से डर रहे थे कि उस लड़के की स्थिति देख ईश्वर से सवाल न कर बैठे कि विकलांगजन के जीवन में इतना संघर्ष क्यों है?

उनके जवाब जानकर मेरे मन की बेचैनी और अधिक बढ़ गयी। मैं उन्हें कैसे समझाती कि विकलांगता की मुख्य वज़ह जागरूकता की कमी और गंभीर बीमारियों के प्रति सावधानी न बरतना होती है। हाँ! यह भी सच है कि कुछ सीमा तक विकलांगता ईश्वर या प्रकृति प्रदत्त ज़रूर हो सकती है; लेकिन विकलांगता को संघर्ष और समस्याओं का पर्याय बहुत हद तक समाज ने ही बनाया है। यदि सामान्य लोग विकलांगजन की समस्याओं को समझे तो बहुत हद तक विकलांगजन का जीवन भी सामान्य हो सकता है।

कब तक लोग शारीरिक / मानसिक विकृतियों को पिछले जन्म के कर्मो के फल जैसी रूढ़िवादी सोच से जोड़ते रहेगें? हम सब जानते हैं कि मेडिकल क्षेत्र में हर शारीरिक / मानसिक विकार का कोई न कोई ठोस कारण होता है; न कि किसी विकलांगता का कारण पिछले जन्म में पाप कर्म होते हैं। यदि ऐसा है फिर तो किसी भी सामान्य व्यक्ति ने कभी कोई पाप कर्म किया ही नहीं होगा। इसीलिए तो वे सामान्य है! इसी प्रकार कोई व्यक्ति जो सामान्य था और किसी दुर्घटना की वज़ह से अब विकलांग हो गया है तो क्या उसके सब पुण्य कर्म अचानक पाप कर्म में बदल गये हैं? क्या ऐसा कभी संभव हो सकता है? नहीं न?

जब कोई मेरी विकलांगता को मेरे पिछले जन्म के कर्मो का फल बता; मेरे प्रति नकारात्मकता दिखाता है तो मैं ज़िन्दगी के प्रति सकारात्मकता दिखाते हुए उन्हें एक बात ज़रूर कहती हूँ कि “जिस प्रकार एक डायरेक्टर मूवी का सबसे कठिन और बेहतरीन रोल बेस्ट एक्टर को देता है उसी प्रकार ईश्वर भी जीवन के कुछ कठिन क़िरदार कुछ ख़ास अदाकारों को ही निभाने को देते हैं जिनमे से मैं भी एक हूँ।” इन दोनों ही बातों में वैसे तो कोई लॉजिक नहीं है; लेकिन लोगों की नकारात्मक सोच से ख़ुद को बचाने के लिए कोई सकारात्मक सोच अपना लेने में ही समझदारी है।

कुछ लोग किसी विकलांग व्यक्ति को देख इतने अधीर हो जाते हैं कि उसके साथ कुछ पल भी नहीं बिता पाते और यदि विकलांगता मानसिक हो तो यह अधीरता कहीं अधिक बढ़ जाती है — जैसे मेरे अटेंडेंट की बढ़ गयी थी। हालांकि मेरे साथ उनका ताल-मेल अच्छा है — इस ताल-मेल की वज़ह शायद यह भी हो सकती है कि अब वे जान चुके हैं कि मैं अपनी विकलांगता से जुड़ी समस्याओं का कोई-न-कोई समाधान ख़ुद ही खोज लेती हूँ या ऐसा करने की कोशिश तो करती ही हूँ। मैं सामने वाले व्यक्ति पर अपनी समस्याओं का बोझ डालने से बचती हूँ; लेकिन सभी विकलांगजन अपनी समस्याओं का समाधान ख़ुद नहीं खोज पाते — कई बार मैं भी नहीं खोज पाती हूँ। ऐसे में हमें सामान्य व्यक्ति के साथ की ज़रूरत होती है। यह सिर्फ़ हमारी ही ज़रूरत नहीं बल्कि सामान्य व्यक्ति का दायित्व भी बनता है कि वह हमारा साथ दे। हमें व हमारी समस्याओं को समझे; लेकिन सामान्य व्यक्ति विकलांगजन का साथ देना तो दूर उनके पास आने से भी डरते हैं, संवाद के नाम पर दो शब्द भी नहीं बोल पाते।

कहने को ये सामान्य व्यक्ति मन से भावुक हैं, संवेदनशील हैं और बहुत समझदार भी हैं; फिर भी किसी विकलांगजन के समक्ष उन लोगों की संवेदनायें, सहनशीलता, भावनायें इतनी कम क्यों पड़ जाती हैं? विकलांगता के जिस संघर्ष को एक विकलांग व्यक्ति उम्र भर जीता है — उस संघर्ष को समझने की बजाय वे विकलांग व्यक्ति से दूरी बना लेने में ही समझदारी मानते हैं। उनकी सहनशीलता और संवेदनशीलता इतनी कमज़ोर क्यों हो जाती है? विकलांगजन की अपेक्षा सामान्य व्यक्ति मानसिक रूप से इतने कमज़ोर क्यों होते हैं कि विकलांगजन की तकलीफ़ो को महसूस करने व समझने की बजाय उन्हें देखकर ही अधीर हो उठते हैं।

ऐसा कब तक चलेगा? सामान्य लोग विकलांगजन से दूरी बनाये रखने को कब तक सही मानेगें? कब तक विकलांगजन की तकलीफ़ो से डर, भाग जाने को अपने अधिक भावुक होने का नाम देगें?

सच्चाई तो यह है कि विकलांगजन की समस्याओं से सामान्य व्यक्ति स्वयं परेशान न हो जायें इसीलिए वे उनसे दूरी बना लेना चाहते हैं। यदि वे किसी विकलांग व्यक्ति के क़रीब जाते भी हैं तो सिर्फ़ उनके जो अपनी समस्याओं के समाधान के लिए उनसे कोई अपेक्षा नहीं करते।

ज़रूरत यह है कि सामान्य लोग विकलांगजन के प्रति अपनी सोच बदले। विकलांगता को पिछले जन्म के कर्मों की सज़ा न मानकर एक सामाजिक स्थिति माने। सामान्य व्यक्ति विकलांगता और विकलांगजन के प्रति न सिर्फ़ संवेदनशील बनें बल्कि उनकी समस्याओं को समझ कर उन समस्याओं को दूर करने का भी प्रयास करें। विकलांगजन को अपने से अलग नहीं बल्कि अपने में से एक समझे। अधीर न हो बल्कि संवेदनशील बनें।

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