सब हो जाएगा

blissful future for disabled people

आज मैं किसी को याद करने निकल पड़ी हूँ। किसको…?, बताती हूँ। आमतौर पर जब बात विकलांगता के संदर्भ में हो रही होती है तो बहुत सारे बुरे अनुभव बिन याद किए ही हमारे ज़ेहन में आ धमकते हैं। ऐसे में इन बुरे अनुभवों की रेल-पेल में कुछ नन्हें-नन्हें, प्यारे से अनुभव जाने कब किधर छिटक जाते हैं और कहीं खो जाते हैं।

ये प्यारे-से अनुभव कई बार बुरे अनुभवों से थक्का-मुक्की करते, कभी इनके पीछे दुबकते तो कभी इनके पीछे से झाँककर कहते हैं कि “देखो हम भी तो तुम्हारी ज़िन्दगी के हिस्से हैं, तुम्हारी यादों के किस्से हैं। कभी हमसे भी बातें करो, कभी हमारी भी बातें करो, कभी हमें भी तो याद करो। देखो वादा करते हैं—जब भी तुम हमें याद करोगी हम मुस्कान बन तुम्हारे चेहरे पर खिल उठेंगे”।

बस अपने चेहरे पर मुस्कान खिलाने के लिए यादों के गलियारों मैं निकल पड़ी हूँ विकलांगता के संदर्भ में अपने अच्छे अनुभवों से मिलने, इन्हें याद करने और इन्हें आपसे साझा करने के लिए। तो आईये आपको हाल-फ़िलहाल में हुए अपने प्यारे-से अनुभव से मिलवाती हूँ।

बात इसी अप्रैल महीने की है, जब 14 अप्रैल को मुझे The Art of Living  संस्था के एक समूह के साथ श्री श्री रविशंकर जी के एक इवेंट (जो कि दिल्ली में आयोजित हुआ था।) में जाने का अवसर मिला। मैं आपको बता दूँ कि मार्च महीने के अंत में ही मैंने The Art of Living संस्था के एक सेंटर से Happiness नामक बेसिक कोर्स किया था। चूँकि यह सेंटर ग्राउंड फ़्लोर पर था, इसलिए मेरा यहाँ जा पाना सम्भव हो पाया।

विकलांगता के कारण मैं ज़्यादा कहीं आ-जा नहीं पाती हूँ। जिस वजह से नए लोगों से मिलना भी नहीं हो पाता है; लेकिन इस सेंटर पर जाकर मुझे नए लोगों से मिलने और जान-पहचान बढ़ाने का अवसर मिला। सेंटर के टीचर गौतम सर और शिल्पी मैम के नेत्रत्व में पूरे समूह के साथ तरह-तरह के क्रिया-कलापों में सम्मिलित होना मेरे लिए सच में एक अच्छा अनुभव रहा; लेकिन इससे अच्छा अनुभव होना अभी बाक़ी था।

Happiness नामक कोर्स पूरा होने के क़रीब पंद्रह दिन बाद हमारे टीचर्स गौतम सर और शिल्पी मैम ने बताया कि दिल्ली में गुरुदेव रविशंकर जी की उपस्थिति में एक इवेंट होने जा रहा है। जो भी लोग इस इवेंट में जाना चाहते हैं वे चल सकते हैं। सेंटर की ओर से सभी लोगों के जाने की व्यवस्था की जाएगी।

जैसे-ही मैंने यह ख़बर सुनी, वैसे-ही इवेंट में जाने के लिए मैं अपनी इच्छा जताना चाहती थी; लेकिन फिर यह सोचकर चुप रह गई कि मुझे ले जाने के लिए तो मेरे साथ कोई अटेंडेंट भी नहीं  है। फिर टीचर्स और समूह के लोग मुझे अपने साथ क्यों ले जाएँगे! मेरे जाने से तो उन सभी के लिए समस्या हो जाएगी न! बस यह सोचकर ही मैं चुप रह गई। मैंने इवेंट में जाने का ख़्याल मन से निकाल दिया; लेकिन शिल्पी मैम शायद कहीं-न-कहीं मेरे मन में चल रही ऊहा-पोह को समझ गई थी। उन्होनें व्यक्तिगत रूप से मुझे  कॉल करके इवेंट में चलने के लिए पूछा।

एक ओर मैं खुश थी कि मैम मुझे साथ ले जाना चाहती हैं, वहीं दूसरी ओर मैं ख़ुद को विश्वास नहीं दिला पा रही थी कि क्या सच में वे मेरी विकलांगता के बावजूद मुझे साथ ले जा पाएँगी? मैं उन्हें अपने स्तर पर समझा देना चाहती थी कि मेरे साथ चलने से उनको या अन्य साथियों को कुछ समस्याएँ हो सकती हैं; लेकिन शिल्पी मैम ने मेरी एक नहीं सुनी उन्होनें कहा, “तुम यह मत सोचो कि तुम्हारी वजह से किसी को कोई समस्या होगी। बस मानसिक रूप से ख़ुद को इस बात के लिए तैयार करो कि ज़रूरत पड़ने पर हमें एक-दूसरे की मदद ले-लेनी और दे-देनी चाहिए। मदद लेने-देने  में कोई संकोच नहीं करना चाहिए। अब बस ज़्यादा सोचो मत “हमारे साथ आ जाओ—सब हो जायेगा”।  

मैं जाने के लिए तैयार हो गई।  मैं उनसे सिर्फ़ यह जानना चाहती थी कि हम दिल्ली किस तरह जा रहे हैं। उन्होनें बताया कि प्राइवेट बस के माध्यम से हम सब दिल्ली जाएँगे। जैसे-ही मैंने बस का नाम सुना मेरे इवेंट में जाने का फैसला एक बार फिर ‘सी-सॉ झूले’ पर झूलने लगा। क्योंकि मैं ख़ुद से बस में शिफ्ट नहीं हो सकती थी और कोई मुझे गोद में लेकर बस में शिफ्ट कराएँ, इसके लिए मैं तैयार नहीं थी। मैंने मैम से सोचने के लिए कुछ समय माँगा और अपनी दो मित्रों से अपनी परेशानी बताई कि कैसे किसी को ख़ुद को गोद में उठाने दूँ? कोई मुझे गोद में उठाऐगा तो वे पल मेरे लिए बहुत असहज होंगे।

इस पर मेरी दोनों ही मित्रों ने समान जवाब दिया कि “यह असहजता सिर्फ़ तुम्हारी सोच-भर में है और कुछ पलों की असहजता के कारण आगे आने वाले कितने ही अच्छे पलों के अनुभव को तुम हाथ से कैसे जाने दे सकती हो”? उन दोनों ने ऑर्डर देते हुए कहा कि “तुम इवेंट में जाओ और हर पल को खुल के जियो”

बस फिर क्या था—दोस्तों का हुकुम सर आँखों पर। मैंने मैम को कॉल करके साथ चलने के लिए हाँ कर दी। मेरी हाँ सुनते ही मैम के शब्द थे—ये हुई न बहादूर लड़की वाली बात” उन्होनें एक बार फिर कहा—“देखो नूपुर मैं नहीं जानती सब कैसे होगा?, तुम भी नहीं जानती सब कैसे होगा? लेकिन इतना जानती हूँ कि “सब हो जायेगा”। बस तुम आ जाओ।

‘सब हो जाएगा’ के मंत्र को लिए मैं अपने घर से सेंटर जाने के लिए निकल पड़ी। जहाँ हमारे पूरे समूह को ले जाने के लिए बस तैयार खड़ी थी। जैसे ही मैं सेंटर पर पहुँची समूह के एक साथी ने मेरी प्रमिशन लेकर अन्य महिला साथी से मुझे बस में बैठाने के लिए कहा और मेरी व्हीलचेयर को फ़ोल्ड करके बस में रख दिया। बस में बैठते ही मैंने तरुण सर को कॉल करके बताया कि मैं दिल्ली इवेंट में आ रही हूँ, (तरुण सर जो कि एक करियर कोच हैं और नोएडा रहते हैं। इन्होनें ही मुझे The Art of Living संस्था से जोड़ा था।) यह सुनकर वे बहुत खुश हुए। उन्होनें वादा किया कि वे इवेंट में मुझसे ज़रूर मिलेंगे। मैं तरुण सर से पहली बार मिलने वाली थी। इसके लिए मैं बहुत उत्साहित थी।

सभी साथियों के आ जाने के बाद हमारी बस दिल्ली के रास्ते पर दौड़ रही थी और हम सब ख़ूब मस्ती कर रहे थे। कभी सब अंताक्षरी खेल रहे थे तो कभी कोई— कोई  किस्सा सुना रहा था।

किसी सफर पर इतनी मस्ती मैंने पहली बार ही की थी। वरना अभी तक तो यह सब मैंने फ़िल्मों में ही होते देखा था।

इस पूरे सफर में गौतम सर और शिल्पी मैम अधिकांश समय मेरे पास ही बैठे और पूरे रास्ते मुझसे पूछते रहे कि कोई समस्या हो तो बताना। बस में सब खाते-पीते जा रहे थे। सर मुझे भी बार-बार कुछ-न-कुछ खाने-पीने को पूछ रहे थे। मैं खाने के चीज़े तो ले रही थी; लेकिन पीने की नहीं। ऐसा करते देख गौतम सर समझ गए कि वॉशरूम न जाना पड़े इसलिए ही मैं ऐसा कर रही हूँ।

मुझे अच्छा लग रहा था कि बस में इतने लोगों के होने के बाद भी सर और मैम का ध्यान सबसे ज़्यादा मुझ पर था। जैसे-ही हम दिल्ली पहुँचे एक साथी ने गोद में लेकर मुझे बस से नीचे उतारा और व्हीलचेयर पर बैठा दिया। माफ़ कीजिए मैं बताना भूल गई  कि यह इवेंट दिल्ली इंदिरा गाँधी स्टेडियम में आयोजित हुआ था।

बस से उतरने के बाद जहाँ समूह के सभी सदस्य इधर-उधर हो गए, सर और मैम मेरे साथ ही रहे जैसे कि मैं उनके परिवार की ही एक सदस्य हूँ। गौतम सर ने बोला कि इवेंट क़रीब तीन-चार घंटे चलेगा और एक बार अंदर चले जाने के बाद  बाहर आना संभव नहीं हो पायेगा। इसलिए सभी लोग वॉशरूम जाना चाहे तो चले जाये। मैम ने मुझे भी वॉशरूम जाने को पूछा लेकिन मैंने यही सोचकर मना कर दिया कि मेरी वजह से उन्हें परेशानी होगी; लेकिन शिल्पी मैम समझ गई और वे मुझे वॉशरूम लेकर गई  और मेरी ज़रूरी सहायता भी की। मैं महसूस कर पा रही थी कि वे मेरी हर तरह से सहायता करने में सहज है।

इसके बाद हम स्टेडियम के अंदर चले गए जहाँ गुरुदेव के लिए मंच सजा हुआ था। सर और मैम ने मुझे मंच के ठीक सामने बैठाया ताकि मैं सबकुछ आसानी से देख सकूँ और ख़ुद मुझसे कुछ दूरी पर बैठ गए। मुझे लग रहा था कि वहाँ से मैं सब कुछ आसानी से देख पाऊँगी और ऐसा हुआ भी; लेकिन जैसे ही गुरुदेव मंच पर आगे की ओर आए लोगो की बेशुमार भीड़ मेरी व्हीलचेयर के आगे थी। उस पल को मैं डर गई कि कहीं व्हीलचेयर से गिर न जाऊँ; लेकिन मैंने अनुभव किया कि किसी अनजान शख़्स ने मेरी व्हीलचेयर पकड़े हुई थी और मेरे आगे से भीड़ को भी हटा रहा था ताकि मैं सब कुछ अच्छे-से देख पाऊँ। शिल्पी मैम भी बार-बार कॉल करके पूँछ रही थी कि मैं ठीक हूँ न।

भले ही मैं इवेंट में अपने आगे इतनी भीड़ देख एक बार को घबरा गई थी; लेकिन कुछ ही पल में मुझे अनुभव हो गया था कि मेरी मदद के लिए जाने-अनजाने बहुत लोग हैं। जिनके रहते मैं सुरक्षित हूँ। इसके बाद मैंने पूरे इवेंट का पूरा आनन्द लिया। जैसे-ही इवेंट ख़त्म हुआ तरुण सर की कॉल आ गई। वे मुझसे मिलने आ रहे थे। मैंने गौतम सर को तरुण सर से मिलने के बारे में बताया तो वे इसके लिए सहर्ष तैयार हो गए। उन्होनें एक बार भी नहीं कहा कि हमें वापस लौटने में देरी हो जाएगी।

स्टेडियम से बाहर निकल कर हमने तरुण सर का इंतज़ार किया। तरुण सर जब आए तो उनसे मिलकर लगा ही नहीं कि उनसे पहली बार मिली रही थी। तरुण सर से मैं ज़्यादा बात नहीं कर पाई लेकिन हमने साथ में  फोटो क्लिक की। हम कुछ ओर समय साथ रह सके और बातें कर सके इसके लिए तरुण सर हमें बस तक छोड़ने के लिए हमारे साथ आए। फिर हम सबने डिनर किया और हमारी बस वापस पानीपत की ओर चल पड़ी।

वापस आते वक़्त बस में अधिकांश सभी लोग शांत थे क्योंकि सभी बहुत थक चुके थे। बस बच्चा-पार्टी ही थी, जिनकी मस्ती अभी तक जारी थी। मैं अपनी आँखें बंद कर इस इवेंट और इससे जुड़े अनुभवों के बारे में सोच रही थी। मैं सोच रही थी कि कुछ पलों की असहजता के बारे में सोचकर यदि मैं इस इवेंट में नहीं आती तो कितने ही अच्छे पलों को अनुभव करने से चूक जाती। मैं सोच रही थी कि मैं किस बात से ज़्यादा खुश थी—इवेंट में जा पाने से या शिल्पी मैम, गौतम सर, तरुण सर और समूह के साथियों के सहयोग और अपनेपन के व्यवहार से। शायद गैर-विकलांगता द्वारा विकलांगता का साथ निभाने के अहसास से।

इस पूरे सफर में मैं सभी के चेहरों पर कुछ ढूँढ़ रही थी और जिसे न पाकर मैं बहुत खुश थी। पता है क्या…? वह थी—वह शिकन और असहजता जो अधिकतर किसी विकलांग व्यक्ति की मौज़ूदगी में गैर-विकलांग व्यक्तियों के चेहरे पर उभर आती है। वे लाख चाह कर भी अपनी असहजता को छुपा नहीं पाते; लेकिन मैं खुश थी कि इस “प्यारे अनुभव के सफर” में वह असहजता और शिकन मुझे कहीं नहीं मिली।

शिल्पी मैम ने बिल्कुल सही कहा था कि “मैं नहीं जानती—सब कैसे होगा, तुम भी नहीं जानती—सब कैसे होगा। बस इतना जानती हूँ कि “सब हो जाएगा

देखियें सब हो भी गया। जिसके लिए घर से अकेले निकल पाना ही मुश्किल हो वह किसी अटेंडेंट के बिना सभी के सहयोग से दिल्ली तक चली गई।

आगे से जब भी कभी मैं किसी परिस्थिति में उलझ जाऊँगी तो यही मूलमंत्र याद करूँगी कि सब हो जाएगा।

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Bharti
Bharti
3 months ago

नूपुर आप एक बेहतरीन लेखिका है।♥️भविष्य के लिए शुभकामनाएं 🙏🏻🙏🏻

Rashi
Rashi
3 months ago

नूपुर जी, लेख पढ़ते पढ़ते ऐसा लगा की आँखों के सामने ही कोई कहानी चल रही है।
और यह मूल मंत्र वाकई बहुत ऊर्जा देने जैसा है कि “सब हो जाएगा”

Lokendra Singh
Lokendra Singh
3 months ago

बहुत ही अच्छा लेख लिखा है आपने। हिंदी शब्दकोष का बेहतरीन प्रयोग किया गया है, आपके लेख से बहुत कुछ सीखने को मिला। आपको शुभकामनायें।

Kavita
Kavita
3 months ago

Aapke article ke words sajeev hain or vastvik hain. very nice

Shilpi setia
Shilpi setia
3 months ago

Bht hi sunder Nupur ji…jese aapne apne anubhav ko shabdo me piroya hai wo sach me Adbhut tha….keep it up and aese hi likhte raho aur sabke liye prerna ke patr Bane raho….❤️

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