मनुष्य ने भाषा की खोज करते समय शायद ही सोचा होगा कि एक समय ऐसा आएगा जब उसकी आने वाली पीढियाँ इसी भाषा को हथियार और ईट पत्थर की तरह एक दूसरे का मन दुखाने के लिए इस्तेमाल करेंगी। समय के साथ इन्सान की भाषा में कोमलता, स्पष्टता भी आई और धार भी। सामान्य सम्प्रेषण के लिए शुरू हुई ध्वनियों की सुन्दर यात्रा जहाँ एक ओर कोमलता से सजी वहीं दूसरी ओर विषैली भी हो गयी।
भाषा के कोमल और सुन्दर स्वरुप पर तो अंतहीन चर्चाएँ होती हैं लेकिन भाषा के विषैले और धारदार रूप की बात बहुत कम होती है। मेरा मतलब है भाषा के मध्यम से किसी के मन को आहत करने की शैली …. यूँ तो मनुष्य का मूल स्वाभाव एक ही है बस हर समाज में उसकी अच्छाई और बारे का कपट कम या ज़यादा हो सकता है। उसी हिसाब से भाषिक विषैलेपन का भी रूप हर भाषा में कम या ज्यादा होगा।
खैर! सभी भाषाओं की बात न करके हम हिंदी की बात करें तो आपने हिंदी में लोगों को बहुत से प्रतीकों को गाली की तरह प्रयोग करते देखा होगा। दरअसल ये प्रयोग सामाजिक व्यापार है जो इन्सान की भावना और समझ का उसकी सम्वेदना और मानसिकता का आईना है। जाति, लिंग इत्यादि के आधार पर भी ये बेहूदा सामाजिक व्यापार होता है लेकिन शारीरिक अक्षमता के आधार पर यह व्यापार कितना संवेदनहीन है — मैं इसके बारे में कुछ कहना चाहती हूँ। शारीरिक विकलांगता को लेकर कितने मुहावरे बने जैसे – लंगड़ा चला पहाड़ चढ़ने, अँधा बांटे रेवडी फिर फिर आपन दे, अंधे के हाथ बटेर लगना आदि… इसी तरह अँधा, बहरा, गूंगा, लंगड़ा जैसे शारीरिक दुर्बलताओं के द्योतक शब्दों को गाली की तरह इस्तेमाल करना…
अरे हाँ, संवेदनहीनता की हद तो ये है कि एक बेचारा ऐसा ही लंगड़ा एक आम के नाम के साथ जुड़कर आज भी अपनी विकलांगता झेल रहा है। मैं बात कर रही हूँ बनारस में उगने वाले ‘लंगड़ा आम’ की जिसका स्वाद कमाल होता है। इस आम को आज से कुछ सौ साल पहले एक साधु ने बनारस में उगाया था। लंगड़ा आम की उत्पत्ति के बारे में जो कहानी सुनी है उसके अनुसार इस आम को उगाने वाला साधु विकलांग था। इसलिए लोगों ने उस आम का नाम ही लंगड़ा रख दिया… है न कमाल?
जिस साधु ने सबको एक स्वाद का उपहार दिया — लोगों ने उसका नाम जानने की कोशिश भी नहीं की — बस देखा तो उसका विकलांग शरीर और फल का नाम ही लंगड़ा रख दिया। कैसी विडम्बना है कि सारे गुण सारी अच्छाई को संवेदनहीन भाषा खा गयी। अतीत में लोगों ने नासमझी में क्या किया क्या नहीं यह महत्त्वपूर्ण नहीं है — बल्कि ज़रूरी ये है की आज जब हम ख़ुद को वक़्त के साथ और ज्यादा संवेदनशील, प्रोग्रेसिव और समझदार कह रहे हैं तो ऐसी भाषाई बेहूदगियों पर बात होनी चाहिए और इसमें सुधार भी किया जाना चाहिये। भाषा समाज के मन और चरित्र दोनों का दर्पण है और दर्पण पर जमी धूल को साफ़ करना हम सबकी साझी ज़िम्मेदारी है… अपनी बात ख़त्म करने के साथ ही मैं ‘लंगड़ा आम’ को ‘बनारसी आम’ कहने का सुझाव दूँगी — आखिर ये बनारसी स्वाद जो ठहरा…