विकलांग बच्चों के बचपन को ज़िंदा रखने में उनके भाई-बहनों का बहुत योगदान होता है

a boy in wheelchair being playfully pushed by his little sister.

हमारी ज़िन्दगी में कुछ बहुत ही ख़ास दिन होते हैं। ये उदासी के लम्हों में भी अगर याद आ जाएँ तो चेहरे पर मुस्कान ला ही देते हैं। अक्सर लोगों की ज़िन्दगी के ये ख़ास दिन बचपन के ही होते हैं। जहाँ हम सिर्फ़ अपने आज में जीते हैं। कल या अगले ही पल क्या होगा हमें उसकी कोई परवाह नहीं होती। बचपन में यदि कोई उद्देश्य होता भी है तो सिर्फ़ पूरा दिन मस्ती करना, खाना-पीना, खेलना-कूदना, ख़ूब शरारत करना ही होता है; लेकिन विकलांग बच्चे बचपन के इस उद्देश्य को कहाँ पूरी तरह पूरा कर पाते है! उनके शरीर में आई कुछ कमियों के साथ-साथ उनके बचपन की मस्तियों में भी न चाहते हुए कुछ कमियाँ आ ही जाती हैं।

जो लोग विकलांग होते हैं उनका बचपन सामान्य बच्चों के बचपन जितना आनंद-भरा नहीं हो पाता। उनका आधे से ज़्यादा बचपन तो उनकी विकलांगता को इलाज के द्वारा ठीक करा लेने के उद्देश्य से डॉक्टर, सर्जन और नीम-हकीमों के चक्कर लगाते-लगाते ही बीत जाता है। बाक़ी बचा हुआ बचपन अपनी विकलांगता को स्वीकार कर उसके साथ जीना सीखते हुए बीत जाता है। नन्हा-सा बाल-मन विकलांगता के कारण अपनी बदली हुई परिस्थिति को समझ ही नहीं पाता और न ही ‘विकलांगता’ शब्द के अर्थ को समझ पाता है। वह समझ पाता है तो सिर्फ़ इतना कि अब वह अपने बचपन के साथियों व भाई-बहनों से कुछ अलग हो गया है। यह विकलांगता उसके आने वाले जीवन पर क्या-क्या असर डालने वाली है; इसका उस बच्चे को कोई अनुमान नहीं होता।

बचपन में वह नहीं जानता कि विकलांगता का जो भार बिना उसकी इच्छा और मर्ज़ी के उसके नाज़ुक कन्धों पर आ पड़ा है; उस भार की वजह से (शायद!) वह ख़ुद भी कभी अपनी आने वाली ज़िन्दगी में उसके परिवारजन, उसके सामान्य भाई-बहनों के लिए एक बोझ-सा बन जायेगा। वह बच्चा इन सब बातों से अनजान सिर्फ़ अपने आज में जीना चाहता है। विकलांग बच्चा अपने बचपन को सामान्य बच्चों या उसके सामान्य भाई-बहनों के बचपन जैसा ही जीना चाहता है। वह दौड़ना-भागना, कूदना, गिरना, उठना — सामान्य बच्चों की तरह सब कुछ करना चाहता है; लेकिन यह अब उसके लिए कभी संभव हो ही नहीं पाता। विकलांग बच्चा अपने बचपन में ही अपनी उम्र से ज़्यादा बड़ा हो जाता है।

मैं यह ज़रूर कहूँगी कि विकलांग बच्चों के बचपन को ज़िंदा रखने में उनके भाई-बहनों का बहुत योगदान होता है। फिर चाहे भाई-बहन उससे बड़े हों या छोटे ही क्यों न हों। उनका बाल-मन इतना संवेदनशील होता है कि अपने विकलांग भाई-बहन के जीवन में विकलांगता के कारण आई कमियों, परेशानियों और तकलीफ़ों को बड़ी सरलता से महसूस कर लेता है और वे अपने विकलांग भाई-बहन को उन कमियों, परेशानियों से दूर रखने की हर संभव कोशिश करते हैं। कभी अपने विकलांग भाई-बहन की परेशानियों से उनकी आँखें भर आती हैं तो कभी वे अपने विकलांग भाई-बहन के आँसू पोंछ उनकी हिम्मत बन जाते हैं। बचपन में वे कोशिश करते हैं कि अपने विकलांग भाई-बहन को अकेलापन महसूस न होने दे। जिन कामों को करने में विकलांग बच्चा ख़ुद को असमर्थ महसूस करता है; सामान्य भाई-बहन अपने विकलांग भाई-बहन के लिए उन कामों को सहर्ष ही कर देते हैं।

यदि विकलांग भाई-बहन के चल न पाने की स्थिति में सामान्य भाई-बहन अपने हमउम्र विकलांग भाई-बहन को कभी गोद में उठाकर तो कभी कन्धों पर बैठाकर घुमाते हैं। हालांकि ऐसा कर पाना उनके ख़ुद के लिए भी आसान नहीं होता था क्योंकि शरीर से वे ख़ुद भी तो बहुत मज़बूत नहीं होते। कभी-कभी तो अपनी छोटी-सी साईकिल पर उसको बैठा कर सैर कराने ही ले जाते थे। सामान्य भाई-बहन अपने विकलांग भाई-बहन के साथ दौड़ने-भागने वाले खेलों की जगह बैठकर खेले जाने वाले खेल खेलते थे या फिर उसको व्हीलचेयर पर बैठाकर ख़ुद ही उसकी व्हीलचेयर को चलाते थे और उसके साथ खेलते थे। बचपन में सामान्य भाई-बहन अनजाने में ही सही पर अपनी पूरी कोशिश करते थे कि उनके विकलांग भाई-बहन भी उन्हीं की तरह अपने बचपन को खुल के जी सके।

मैं अपनी एक व्हीलचेयर यूज़र मित्र का उदाहरण देती हूँ। बचपन में जब वह अपनी विकलांगता के कारण स्कूल नहीं जा पाती थी उसके भाई-बहन उसके लिए घर को ही स्कूल बना देते थे। कभी वे अपनी विकलांग छोटी बहन के टीचर बन जाते थे तो कभी उसके सहपाठी बन जाते थे। कभी पहले, दूसरे पीरियड की घंटी बजाते तो कभी टन-टन-टन करके उसको लंच टाइम होने की सूचना देते थे। ऐसा करके वे अपनी बहन को यह अनुभव कराने की कोशिश करते थे कि स्कूल कैसा होता है और उसके अन्दर कैसा वातावरण होता है। इसी घर वाले स्कूल में खेल-खेल में ही मेरी मित्र को पहली से तीसरी क्लास तक की शिक्षा दी गई।

विकलांग बच्चे के सामान्य हमउम्र भाई-बहन अपने विकलांग भाई-बहन के भविष्य को लेकर भी पूरे सतर्क होते हैं। वे जानते हैं कि शिक्षा का जीवन में क्या महत्त्व है! शिक्षित होने पर विकलांग व्यक्ति का भी सामान्य व्यक्ति जितना ही अधिकार हैं। शिक्षा सबको मिलनी चाहिए। चाहे फिर शिक्षित करने के लिए कुछ अलग ही रास्ते क्यों न खोजने पड़े। जैसा कि मेरी मित्र की बहन ने उसके लिए किया भी था। उन्होंने विकलांगता की वजह से मेरी मित्र को शिक्षा से वंचित नहीं होने दिया।

जब विकलांग बच्चे के परिवारजन विशेषकर भाई-बहन उसके वर्तमान और भविष्य के प्रति सतर्क हो जाते हैं तो काफ़ी हद तक उस बच्चे का जीवन सामान्य होने लगता है। बचपन में अधिकांश सामान्य और विकलांग भाई-बहनों में प्यार, समझ, सूझ-बूझ और संवेदनाओं का इतना मज़बूत रिश्ता होता है कि विकलांगता व उससे जन्मी परेशानियाँ भाई-बहन के रिश्ते के आगे बौनी दिखाई देती है। बच्चों का नासमझ बचपन इतना समझदार होता है कि विकलांगता को छोटा कर ख़ुद को बड़ा कर ही लेता है। बचपन की नासमझी में सामान्य भाई-बहन अपने विकलांग भाई-बहन को एक सामान्य बचपन देने में कुछ हद तक सफल हो ही जाते हैं। सामान्य भाई-बहनों का स्नेह, साथ, सुरक्षा और समर्थन पाकर विकालांग बच्चा यही कहता है कि – “तेरा साथ है तो मुझे क्या कमी है!”

मैंने इस आलेख में विकलांग बच्चे के बचपन, सामान्य व विकलांग भाई-बहनों के आपसी रिश्ते, प्यार, अपनेपन और सहयोग और विकलांग भाई-बहन के प्रति सामान्य भाई-बहनों की संवेदनशीलता के बारे में बात की है। अपने अगले लेख में मैं विकलांग व्यक्ति के बचपन के बाद की ज़िन्दगी और उस ज़िन्दगी में सामान्य भाई-बहनों की भूमिका और आपसी रिश्तों की बात करूँगी।

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Vijendra
Vijendra
1 year ago

बहुत बढ़िया।

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