पिछले सप्ताह मैं एक महिला की छोटी-सी मदद करने की कोशिश कर रहा था। यह महिला व्हीलचेयर प्रयोग करती है और बड़ी मुश्किल से महाराष्ट्र के अपने घर से बाहर निकली है ताकि दिल्ली में एक कोर्स कर सके और अपने जीवन को एक नई दिशा दे सके। उन्हें कोर्स करने के लिये दक्षिण दिल्ली के साकेत में एक संस्थान मिल भी गया जहाँ व्हीलचेयर प्रयोग करने वालों को नकारा नहीं जा रहा था। संस्थान के लोगों ने लकड़ी की एक रैम्प भी बनवा दी ताकि उनके दरवाज़े पर बनी 2-3 सीढ़ियों की रुकावट भी इस महिला के रास्ते में न आये। यहाँ तक तो सब ठीक था लेकिन असली समस्या बनी रहने के ठिकाने खोज। आस-पास कोई भी ऐसा पी.जी. / किराये का कमरा या होस्टल नहीं मिल पाया जहाँ यह महिला कोर्स के दौरान छह महीने रह सके।
अव्वल तो अधिकांश इमारतें व्हीलचेयर के लिये उपयुक्त नहीं हैं — और जो हैं, उनके कर्ता-धर्ता भी व्हीलचेयर का नाम सुनते ही सुर बदल लेते हैं। लोगों को विकलांगजन से जैसे कोफ़्त है — मौखिक रूप से सब कहते हैं कि हमें ये करना चाहिए, वो करना चाहिए लेकिन व्यवहारिक-रूप से लोगों ने अपनी-अपनी संकीर्ण सीमाएँ तय कर रखी हैं। अधिकांश लोगों की सीमा में केवल लिप-सर्विस / बोल-बचन आते हैं — वे इससे आगे बढ़ कर कुछ भी व्यवहारिक करने को just too much मानते हैं। कुछ लोग जो व्यवहारिक-रूप से कुछ करने की इच्छा रखते हैं उनमें से अधिकांश केवल फ़ेसबुक पर पोस्ट को लाइक/शेयर करके इतिश्री कर लेते हैं। बहुत-ही कम लोग वास्तव में कोई व्यवहारिक कदम उठाते हैं — और इन लोगों की सीमाएँ भी संकीर्ण होती हैं।
देखिये, समाज को बेहतर बनाना कोई आसान काम नहीं है। इसके लिये हमें अपनी संकीर्ण सीमाओं से बाहर निकल कर कुछ ठोस करना पड़ता है — अन्यथा हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक अल्प-विकसित समाज में रहते हुए अपने समाज के महान होने का भ्रम पाले रहेगें। बदलाव घर बैठे या रिस्क लिये बिना नहीं होते। जितने बड़े बदलाव हम चाहते हैं उतने ही बड़े रिस्क भी लेने पड़ते हैं। केवल लिप-सर्विस से कुछ नहीं बदलता।
उक्त महिला के लिये कई जगह बातचीत की लेकिन किसी ने भी उक्त संस्थान की तरह कोई व्यवहारिक बात नहीं की। हम कह सकते हैं कि उक्त संस्थान को तो भावी विद्यार्थी से फ़ीस मिलने का लालच हो सकता है इसलिये उन्होनें लकड़ी की एक सामान्य-सी रैम्प बनवा दी — लेकिन जो भी है — कम-से-कम उक्त संस्थान ने एक व्यवहारिक कदम तो उठाया! यह उन संस्थानों की तरह तो नहीं है जिन्होनें इस महिला को व्हीलचेयर यूज़र होने के कारण दाखिला देने से मना कर दिया। हालांकि विकलांगता के आधार पर भेदभाव ग़ैर-कानूनी है लेकिन कानून यहाँ मानता कौन है? नियम कानून का मज़ाक तो सड़क से लेकर सत्ता के गलियारों तक में उड़ाया जाता है।
इस महिला के रहने के लिये एक अच्छी जगह मिली — व्हीलचेयर के उपयुक्त — ईश्वर के घर की तरह — लेकिन ऐसी जगहों पर भी कर्ता-धर्ताओं ने किसी की कोशिशों का मान नहीं रखा और अलाँ-फ़लाँ नियम का हवाला देते हुए मना कर दिया।
यदि दो-चार रोज़ में इस महिला के रहने का इंतज़ाम नहीं हुआ तो उन्हें महाराष्ट्र वापस जाना होगा और उसके बाद हो सकता है कि उन्हें यह अवसर फिर न मिले। करोड़ों लोगों के इस समाज में हम एक महिला के लिये कुछ महीने रहने की जगह अगर नहीं खोज पा रहे हैं तो क्या हम इस समाज को ख़ूबसूरत कह सकते हैं? विकलांगता के बावजूद समाज में कुछ योगदान करने की जितनी कोशिश यह महिला कर रही है क्या उसका एक अंश-भर भी यह समाज उसकी मदद के लिये कर रहा है?
लोगों द्वारा ख़ुद तय की गई अपनी संकीर्ण-सीमाओं के कारण ही हम एक प्यासे समाज में रह रहे हैं — यहाँ हर कोई किसी-न-किसी रूप में प्यासा है क्योंकि हम अपनी संकीर्ण सीमा से बाहर निकल कर रेगिस्तान में कुएँ खोदने कोशिश नहीं करते… हमें फूल पसंद हैं लेकिन हम फूल खिलाने की कोशिश नहीं करते।
उक्त महिला के लिये मैंने अभी तक आस नहीं छोड़ी है। मैं उनके लिये कोई-न-कोई इंतज़ाम अवश्य करूँगा; ऐसा मेरा प्रयास है। कल को यदि मेरा प्रयास सफल हो जाता है तो समाज उसकी तारीफ़ तो करेगा — लेकिन यह उसी तरह होगा कि समाज को फूल तो पसंद हैं लेकिन तभी जब कोई और खिला कर दे दे।
हम विकलांगजन को न जाने कितनी बार ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है; जहाँ हमसे हमारी खुशियों, हमारी आज़ादी, हमारे क़ामयाब बन पाने के अधिकार को हमसे सिर्फ़ इसलिए छीन लिया जाता है क्योकि हम विकलांग है, या यह समाज जो बड़ी सोच रखने का दावा तो करता है; लेकिन इतनी संकीर्ण सोच रखता है कि ‘विकलांगता’ शब्द को अपनी ज़ुबान पर तो जगह देता है; लेकिन समाज के बीच मे देखना हरगिज़ पसन्द नही करता। इसलिए समाज की व्यवस्था ही इस प्रकार की करता है कि जिसमे विकलांगजन के लिए कोई जगह ही नही है।
शरीर के किसी अंग में कोई कमी होने को ही विकलांगता कहते है न! हम भी तो इस समाज का एक महत्वपूर्ण अंग है। जिसको यह समाज ख़ुद से अलग कर देना चाहता है। हमारी राहों में समस्याऐं पैदा कर क्या यह समाज ख़ुद विकलांग नही हो रहा है? क्या इस समाज की सोच विकलांग नहीं है?
जब भी मैं विकलांगजन के लिए ऐसा कुछ देखती, सुनती या अनुभव करती हूँ; तो मन बहुत आहत हो जाता है। मैं नफ़रत करती हूँ उन लोगो से जिनकी ‘कथनी और करनी’ अलग-अलग होती है।
ये समान्य लोग कितने लाचार होते हैं ना?