मैं जब घर से बाहर कहीं जाती हूँ, बड़ा असहज महसूस करती हूँ। यूँ लगता है जैसे ये जगह मेरे लिए नहीं है, ये लोग मेरे लिए नहीं हैं, बल्कि कभी-कभी तो कुछ बातें दिल में यूँ बैठ जाती हैं, महसूस होता है कि ये दुनिया ही मेरे लिए नहीं है। मुझे ऐसा क्यों लगता है? इसे मैं कुछ उदाहरणों के ज़रिये बताने की कोशिश कर रही हूँ।
एक बार मैंने अखबार में एक विज्ञापन देखा। वह अखबार युवतियों और महिलाओं के लिए स्वयम् ही एक बहुत बड़ा कार्यक्रम आयोजित कर रहा था। इस कार्यक्रम के दौरान अलग-अलग समूहों में युवतियों के हुनर की प्रतियोगिता होनी थी। मैंने सोचा “चलो मैं भी इसमें भाग ले लेती हूँ।”
वह मई का महीना था। प्रतियोगिता के दिन मेरे मम्मी-पापा 36 घंटे की यात्रा कर मुम्बई से जमशेदपुर दोपहर 12 बजे पहुँचे थे। उसी दिन लोकसभा के लिये वोटिंग भी चल रही थी। पापा बीमार थे लेकिन वे जल्दी से स्नान इत्यादि करके बिना कुछ खाये-पिये ही मेरे साथ वोटिंग के लिए निकल पड़े। हम जहाँ वोट डालने गये थे — अखबार द्वारा आयोजित कार्यक्रम भी उसी के पास स्थित एक होटल में था। हमने एक बजे तक अपनी वोट डाल दी थी और कार्यक्रम का समय तीन बजे का था। मैंने सोचा “अगर मैं घर वापस चली जाऊँगी तो एक घंटे बाद मुझे कौन फिर से लायेगा?” इसलिए मैंने पापा को प्रतियोगिता की बात बताई और कहा “आप मुझे इस होटल में छोड़कर घर चले जाइये।”
पापा मुझे होटल लेकर गये। हम जैसे ही लिफ़्ट के पास पहुँचे, लिफ़्ट ऊपर चली गई। जब तक लिफ़्ट ऊपर जायेगी, फिर नीचे आयेगी, तब तक पापा मुझे गोद में लिये रहे। वे थकने लगे थे, भूखे और बीमार भी थे। वहाँ बैठने के लिए एक भी कुर्सी, बेंच, स्टूल या सोफा तक नहीं था। मैंने पापा से कहा “आप मुझे इस डस्टबिन पर ही बैठा दो।” वे बोले “पागल हो क्या?” फिर मैंने कहा “अच्छा सीढ़ी पर बैठा दो।” बोले “वो गंदी है और वैसे भी, फिर नीचे से मैं तुम्हें उठा नहीं पाऊँगा।” कुछ देर में लिफ़्ट आई और हम ऊपर गये। पापा ने मुझे सोफ़े पर बैठाते हुए बहुत तेज डाँटा “ऐसी किसी भी जगह जाया मत करो, जहाँ तुम्हारे लिए कोई व्यवस्था नहीं होती है।” उनकी साँसें तेज चल रही थीं।
बहुत बड़े अखबार का बहुत बड़ा कार्यक्रम एक बहुत बड़े होटल में था। जिसमें बहुत सजावट थी, बहुत बड़े-बड़े लोग आये थे और बहुत बड़ी संख्या में दर्शक भी — लेकिन उस बड़ी जगह में, केवल एक व्हीलचेयर नहीं थी। मैं तो घर से वोट डालने के लिये निकली थी और मतदान केन्द्र पर व्हीलचेयर की व्यवस्था होती है इसलिए मैं अपनी व्हीलचेयर साथ नहीं लेकर गई थी।
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मेरे शहर में एक बहुत बड़ा साहित्यिक भवन है — वहाँ बड़े-बड़े साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यक्रम होते रहते हैं। पूरे शहर के प्रतिष्ठित लोग आते-जाते रहते हैं। मैं भी वहाँ कभी-कभी जाती हूँ। जब भी जाती हूँ, मेरी व्हीलचेयर को दो आदमी उठाकर सीढ़ियों पर चढ़ाते हैं। उस बड़े और प्रतिष्ठित भवन में बहुत कुछ है लेकिन एक रैम्प और एक व्हीलचेयर नहीं है।
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पिछले दिनों शहर में एक कार्यशाला आयोजित हो रही थी। संयोजक ने व्यक्तिगत-रूप से मुझे इसकी जानकारी भेजी। (इसका अर्थ मुझे बुलाना ही तो हुआ?) मैंने उनसे पूछा, “क्या वहाँ व्हीलचेयर है?” वे बोले “नहीं।”
मैं सच में उस कार्यशाला में जाना चाह रही थी। वहाँ कुछ सीखती, न सीखती, लेकिन सिर्फ़ देखने भर से भी तो बहुत-सी नई जानकारियाँ मिल जातीं। लेकिन वहाँ एक व्हीलचेयर नहीं थी। अगर मैं अपनी व्हीलचेयर लेकर जाऊँ तो इसका है अर्थ एक ऑटो बुक करना। दूरी के हिसाब से ऑटो का एक दिन का किराया 500 रुपये और पाँच दिन का 2500 रुपये; और इसके अलावा पंजीयन शुल्क। सिर्फ़ पाँच दिन में तीन हज़ार से अधिक का खर्च? मैंने कार्यशाला जाने का इरादा छोड़ दिया।
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मैं सोचती हूँ कि ये बड़े-बड़े लोग, बड़े-बड़े कार्यक्रमों में बड़ा-बड़ा पैसा तो खर्च कर देते हैं लेकिन वे हम व्हीलचेयर प्रयोक्ताओं के लिए कोई व्यवस्था क्यों नहीं करते हैं? वे अपने भवनों और कार्यक्रमों के माहौल, उसकी बनावट के वक़्त हमें ध्यान में क्यों नहीं रखते, जबकि उनके पास पैसा तो होता है? उनके ध्यान में ये क्यों नहीं आता कि ऐसी वर्कशॉप या इवेंट्स में हम भी तो आ सकते हैं। क्या इसलिए कि हम आबादी का सिर्फ़ 2% हैं? इसलिए वे सोचते होंगे कि “अब इन दो-चार लोगों के लिए अलग से व्यवस्था करके क्या पैसे बर्बाद करना? छोड़ देते हैं, ये लोग अपना सामंजस्य बिठा लेंगे।” — और इसीलिए वे सार्वजनिक भवनों और कार्यक्रमों की व्यवस्था सिर्फ़ अपनी सुविधा को ध्यान में रखकर करते हैं।
उन्हें ये क्यों नहीं मालूम कि विकलांगजन भारत में भले ही सिर्फ़ 2% हों लेकिन हम अपने आप में एक पूरा देश हैं। हम जनसंख्या में लगभग 56 देशों से बड़ा देश हैं। फिर भी हमें नज़रअंदाज़ करने देने का क्या कारण है? क्या विकलांगजन को इसलिये नज़र-अंदाज़ कर दिया जाता है क्योंकि वे अल्पसंख्यक हैं?
डॉली जी आपने जो सवाल उठाया है वह हर विकलांगजन का सवाल है।क्यो हमें अधिकांश जंगहों पर नज़रअंदाज कर दिया जाता है? जबकि हम भी देश, दुनिया, समाज के अभिन्न अंग है।
आपके अनुभवों को पढ़ कर अपनी शुरुआती सोचपर शर्मिंदा हो रहा हूँ “” न जाने कितने माता-पिता अपने बच्चों को प्रतिभागिता के और विकास के मौके नहीं दिला पाते।
बढ़िया सवाल है कि चुनाव बूथों पर इंतजाम होता है मगर खर्चीले कार्यक्रम स्थलों पर नहीं।यह एक और बात की ओर इशारा करते हैं कि ये लोग बहुत सहजता से शामिल नहीं रहते अमूमन ।क्यों ?
बढ़िया लेख