एक घोड़ा था। जन्म से ही वह दूसरों से अलग था। उसके कदम भारी थे, और वह कभी दौड़ नहीं सका। लेकिन वह खड़ा रहता था, मेहनत करता था, अपना काम बखूबी निभाता था। उसके मालिक ने उसे प्यार से पाला, लेकिन धीरे-धीरे समाज के सवाल उठने लगे—“तुम इसे क्यों रखे हो? यह दौड़ता तो है नहीं! इसका क्या उपयोग?”
मालिक का विश्वास डगमगाने लगा। उसने सुना, सोचा और आखिरकार घोड़े को छोड़ देने का मन बना लिया। पर घोड़ा अब भी निष्ठावान था। वह मालिक की सेवा में जुटा रहा, अपने तरीके से योगदान देता रहा। लेकिन समाज को यह मंजूर नहीं था। बार-बार तानों की बौछार, व्यंग्य, और उपेक्षा ने मालिक के भीतर भी संदेह भर दिया। एक दिन, भारी मन से उसने फैसला कर लिया—जो दौड़ नहीं सकता, उसका कोई स्थान नहीं।
एक शांत सुबह, जब सूरज अपनी पहली किरणें फैला रहा था, मालिक घोड़े के पास आया। उसने उसके सिर पर हाथ फेरा, उसकी आँखों में झाँका—वहाँ विश्वास था, समर्पण था, लेकिन भय नहीं था। घोड़े को अभी भी यकीन था कि वह मूल्यवान है। लेकिन मालिक अब समाज के दवाब से मुक्त होना चाहता था। उसने बंदूक उठाई, और एक गोली घोड़े के सिर में उतार दी। घोड़ा धड़ाम से गिर पड़ा—जैसे उसकी मौत से समाज को राहत मिल गई हो।
विकलांगता: शरीर की नहीं, मानसिकता की समस्या
यह घोड़ा सिर्फ एक पशु नहीं था, यह समाज में रहने वाले उन विकलांग व्यक्तियों का प्रतीक भी था जो अपनी पूरी मेहनत और काबिलियत के बावजूद सिर्फ इसलिए स्वीकार नहीं किए जाते क्योंकि वे आम धारणाओं के अनुसार “सामान्य” नहीं हैं। समाज ने मान लिया है कि दौड़ ही सब कुछ है – लेकिन घोड़े का जीवन दौड़ने से कहीं ज्यादा था। ठीक वैसे ही जैसे विकलांग व्यक्ति की क्षमता सिर्फ चलने, दौड़ने, या सीढ़ियाँ चढ़ने तक सीमित नहीं होती। वह भी सोच सकता है, काम कर सकता है, सपने देख सकता है और उन्हें पूरा भी कर सकता है। लेकिन समाज सिर्फ उसकी व्हीलचेयर, उसकी बैसाखी, या उसकी शारीरिक सीमाओं को ही देखता है।
जब समाज ठुकराता है, तो आत्मसम्मान टूटता है
विकलांग व्यक्तियों को अक्सर “बोझ” समझा जाता है। लोग उन्हें सहानुभूति भरी नज़रों से देखते हैं, लेकिन बराबरी का दर्जा देने से कतराते हैं।
अगर कोई व्हीलचेयर उपयोगकर्ता नौकरी के लिए जाता है तो पहला सवाल होता है, “क्या आप यह कर पाएंगे?”
अगर वह किसी से शादी करना चाहता है तो लोग सोचते हैं, “जीवनसाथी कैसे एडजस्ट करेगा?”
अगर वह किसी सार्वजनिक स्थान पर जाता है तो या तो उसे घूरा जाता है या फिर पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया जाता है।
क्या यह समाज का दायित्व नहीं कि वह हर व्यक्ति को बराबरी का दर्जा दे? क्या सिर्फ़ इसलिए किसी को कमतर समझा जाना चाहिए क्योंकि वह शारीरिक रूप से “सामान्य” नहीं है?
कार्यस्थल और रिश्तों में भेदभाव
आज भी कई कंपनियाँ विकलांग व्यक्तियों को सिर्फ इसलिए काम पर नहीं रखतीं क्योंकि उन्हें लगता है कि वे “अनफिट” हैं। अगर कोई विकलांग व्यक्ति बेहतर प्रदर्शन करे तो लोग उसे “प्रेरणादायक” कहने लगते हैं – मानो उसने कोई चमत्कार कर दिया हो। और अगर वह गलती करे, तो लोग कहेंगे, “हमें पहले ही शक था।”
रिश्तों में भी यही होता है। विकलांग व्यक्ति को “अधूरा” मान लिया जाता है। उसे प्रेम, शादी और परिवार के योग्य नहीं समझा जाता, मानो भावनाएँ सिर्फ शरीर पर निर्भर करती हैं।
समाज की सोच बदले, व्यक्ति को नहीं
अब समय आ गया है कि:
- विकलांगता को कमजोरी मानना बंद किया जाए।
- समान अवसर दिए जाएँ, न कि दया के टुकड़े।
- व्यक्ति की क्षमताओं को उसके काम के आधार पर आँका जाए, न कि उसके शरीर के आधार पर।
- विकलांग व्यक्तियों को सहानुभूति नहीं, बराबरी मिले।
घोड़ा दौड़ा नहीं, फिर भी उसका जीवन मूल्यवान था
समाज को यह समझना होगा कि हर घोड़ा दौड़ने के लिए नहीं बना होता, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह महत्त्वहीन है। लेकिन जब तक समाज अपनी मानसिकता नहीं बदलेगा, तब तक वह घोड़ों को मारता रहेगा—कभी सचमुच, कभी प्रतीकात्मक रूप से।
विकलांग व्यक्ति सिर्फ सहानुभूति के पात्र नहीं, वे सम्मान, अवसर और बराबरी के हकदार हैं। अब समय आ गया है कि समाज अपनी सोच बदले, ताकि हर व्यक्ति अपनी शर्तों पर जी सके, और कोई भी घोड़ा सिर्फ इसलिए मौत के घाट न उतार दिया जाए क्योंकि वह दौड़ नहीं सकता।
जीवन सबका अमूल्य है, खुलकर जिओ और जीनो दो। शानदार लेख है हिमांशु भाई 👍
विकलांगजन को उम्र के हर पड़ाव पर, समाज के विभिन्न वर्गो द्वारा विभिन्न रूपों में भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। यही कटु सत्य है। सामाजिक रिश्तो से लेकर पारिवारिक रिश्ते भी कहीं न कहीं उसकी भावनाओं को ठेस पहुँचाते हैँ। समाज में व्याप्त मानसिकता को तो नहीं बदला जा सकता परन्तु खुद की मानसिक स्थिति को इतना मजबूत बनाया जाये की मन कम से कम आहत हो। खुद की क्षमता व महत्व को कम ना आंके। दूसरों को क्या पता आप किस काबिल है और क्या कर सकते है। समुन्द्र की गहराई का अंदाज़ा सिर्फ़ समुन्द्र को ही होता है। उन लोगो से किनारा कर ले जो आपको मानसिक रूप से कमजोर बनाते है, मानसिक सुकून को छीनते हैं।
साथ ही समय रहते सचेत होने की भी आवश्यकता है। कहीं ऐसा न हो कि ‘घोड़े ‘ की तरह आप समय से पहले मार दिए जाओ या खुद मर जाओ।