भारत के सुप्रीम कोर्ट ने 16 अक्तूबर 2024 को एक ऐतिहासिक फ़ैसले में कहा कि शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले के मामलों में विकलांगजन को केवल उनके विकलांगता प्रतिशत के आधार पर अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता। यदि विकलांगता का मूल्यांकन करने वाला बोर्ड यह मानता है कि किसी योग्य व्यक्ति की विकलांगता उसके किसी कोर्स को करने के रास्ते में बाधा नहीं बनेगी तो उस व्यक्ति को दाखिला दिया जाना चाहिये। यह निर्णय भारत के मुख्य न्यायाधीश श्री डी.वाई. चंद्रचूड, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की खंडपीठ ने दिया।
न्यायमूर्ति श्री डी.वाई. चंद्रचूड ने बैंच के फ़ैसले को पढ़ते हुए कहा कि विकलांगजन दया या दान के पात्र नहीं बल्कि समाज और राष्ट्र का एक अभिन्न अंग हैं। विकलांगजन के अधिकारों का विकास और सभी प्रकार के भेदभाव का अंत एक राष्ट्रीय परियोजना है। जीवन के सभी क्षेत्रों में विकलांगजन का समावेश इस परियोजना का एक हिस्सा है।
सुप्रीम कोर्ट ने उस नियम को खारिज कर दिया जिसके तहत वर्णांध (color-blind) विद्यार्थियों को एम.बी.बी.एस. कोर्स में दाखिला नहीं दिया जाता था।
ऐसे ही एक विद्यार्थी की याचिका पर निर्णय देते हुए कोर्ट ने कहा कि यदि विकलांगजन को उचित समायोजन (reasonable accommodation) से वंचित किया जाएगा तो यह मौलिक अधिकार का हनन होगा और यह राष्ट्र के लिये हानिकर भी साबित होगा।
कोर्ट ने कहा कि मौलिक अधिकारों पर आँच आने के केसों में कोर्ट चुप नहीं रहेंगे। मेडिकल कोर्सो में दाखिला चाहने वाले विकलांग विद्यार्थियों से सम्बंधित केसों की सुप्रीम कोर्ट में बाढ़ आई हुई है। यह स्पष्ट है कि मूल्यांकन करने वाले बोर्ड द्वारा विकलांग विद्यार्थियों का over-medicalisation किया जा रहा है। बोर्ड व्यक्ति की योग्यता से अधिक उसकी विकलांगता पर ज़ोर देते हैं। इससे उचित समायोजन (reasonable accommodation) का नियम धराशायी हो जाता है। किसी विद्यार्थी को विकलांगता के कारण अयोग्य घोषित करने की अपेक्षा इस बात पर ज़ोर दिया जाना चाहिये कि उस विद्यार्थी को कैसे कोर्स में समायोजित किया जा सकता है।
हाल के समय में सुप्रीम कोर्ट ने उन विकलांगजन के हितों की रक्षा करने हेतु अनेक ऐसे निर्णय दिये हैं जो शैक्षणिक संस्थानों में विकलांगता के कारण दाखिला पाने से वंचित रह जाते हैं।