पश्चाताप – हिमांशु कुमार सिंह

woman on crutches in her kitchen

दिसंबर की सर्द रात थी, लखनऊ की ठंडी हवाओं ने घरों के अंदर तक दस्तक दे रखी थी। संजीव और मृणाल का छोटा-सा घर बेशक बिजली से रोशन था, लेकिन भावनात्मक रूप से अंधकारमय था। उनके विवाह को एक साल हो चुका था, फिर भी वे अजनबियों की तरह जीवन व्यतीत कर रहे थे।

मृणाल अपने गृहस्थ जीवन को संवारने की पूरी कोशिश कर रही थी, लेकिन संजीव उसे दिल से स्वीकार नहीं कर पा रहा था। इसका कारण था मृणाल का अपाहिज होना। संजीव अक्सर अपने भाग्य को कोसता और सोचता कि आखिर उसकी शादी एक अपाहिज महिला से क्यों की गई?

यह समझना बहुत मुश्किल था कि संजीव और मृणाल के रिश्ते में जो दूरी और अस्वीकार्यता थी, उसके पीछे का कारण संजीव का मृणाल को नापसंद करना था या उसे मृणाल को स्वीकार करने में शर्म आती थी।

मृणाल एक समझदार और सुलझी हुई महिला थी जो संजीव को खुश रखने के लिए हर संभव प्रयास करती थी। लेकिन संजीव के मन में मृणाल के प्रति इतनी नफ़रत भरी हुई थी कि उसकी कोई भी कोशिश सफल नहीं होती थी। विवाह के बाद मृणाल ने संजीव को खुश रखने के लिए हर संभव प्रयास किया। वह स्वादिष्ट भोजन बनाती, उसका ख्याल रखती, और हर छोटे-बड़े काम में मदद करती। फिर भी संजीव का दिल उसके प्रति कठोर ही बना रहा।

संजीव घर आये अपने मित्रों और सहकर्मियों के सामने मृणाल को अपमानित करने के किसी भी अवसर से चूकता नहीं था। उसे लगता था कि मृणाल उसकी जिंदगी का सबसे बड़ा बोझ है और अपमानित करने से मृणाल उसके जीवन से चली जाएगी। मृणाल के मन में भी कई बार ऐसे विचार आए लेकिन वह गाँव में रह रही अम्मा (संजीव की माता) की बात मान कर अपने अपमान को भुला देती थी। उसे पता था कि अम्मा उससे कितना प्रेम करती थीं।

अम्मा सदैव मृणाल को समझाती की संजीव मन का खराब नहीं है। वह बस मेरे दबाव में की गई इस शादी के कारण मुझसे से नाराज़ है और अपना गुस्सा तुम पर निकल रहा है। तुम थोड़ा धैर्य रखो।

अम्मा भी क्या करती, संजीव उनका इकलौता बेटा है और इस नाराज़गी के कारण संजीव ने अम्मा से साल भर से कभी बात की थी। कैसा महसूस होता होगा अम्मा को? वह बस चाहती थी कि उनके बच्चे ख़ुश रहे।

मृणाल के लिए यह परिस्थिति अत्यंत कठिन थी, लेकिन उसने कभी आत्मविश्वास नहीं खोया। वह संजीव के प्रेम और सम्मान को पाने के लिए हर संभव प्रयास करती रही। अम्मा के समझाने पर, मृणाल की आँखों में एक उम्मीद की किरण जगी रहती थी कि शायद एक दिन संजीव उसके प्रयासों को समझेगा और उसे अपने दिल से स्वीकार करेगा।

दिसंबर की उस सर्द रात को संजीव और मृणाल के जीवन में विपत्तियों का पहाड़ ही टूट पड़ा था। गाँव से ख़बर आयी कि अम्मा अब नहीं रही। यह खबर संजीव के लिए किसी बिजली के झटके से कम नहीं था। उसके लिए माँ ही उसकी दुनिया थीं, पिता जी तो बचपन में ही छोड़ गए थे।
मृणाल से विवाह के कारण अम्मा से उनके अंतिम समय में बात न कर पाने के मलाल ने संजीव को भीतर से तोड़ दिया। वह तुरन्त ही मृणाल के साथ गाँव के लिए निकल पड़ा।

वहीं दूसरी तरफ मृणाल का मुख एकदम शांत था। वह अम्मा के बहुत करीब थी इसलिए उसे अपने भविष्य की चिंता अंदर ही अंदर खाये जा रही थी। उसे भय था कि अम्मा के न होने पर उसके और संजीव के बीच ये दूरीयाँ कहीं उनके रिश्ते को और अधिक कठिन न बना दे ।

रास्ते में संजीव ने कई बार मृणाल की तरफ देखा और उसे सामान्य अवस्था में पा कर उसकी आँखों में मृणाल के प्रति नफरत और बढ़ गई। उसे लगा कि अम्मा के जाने का मृणाल को कोई दुःख नहीं है।

इस कठिन परिस्थिति में भी मृणाल ने संजीव का साथ नहीं छोड़ा। उसने घर और संजीव दोनों को संभालने की पूरी कोशिश की। अम्मा के देहांत के बाद, संजीव और भी अधिक उदास और चिड़चिड़ा हो गया। वह अक्सर मृणाल पर अपना गुस्सा निकालता, लेकिन मृणाल ने फिर भी हार नहीं मानी। उसने अपने दुःख और डर को छुपाते हुए संजीव के दु:ख को समझा और उसे सहारा देने की कोशिश की। उसने संजीव के हर दर्द को अपना दर्द समझा और उसकी देखभाल की। लेकिन संजीव ने प्रेम से दो शब्द तो क्या, मृणाल की ओर प्रेम की एक नज़र भी नही की।

अम्मा के तेरहवीं तक घर में आए सगे सम्बंधियों की सभी आवश्यकताओं का ख्याल मृणाल ने रखा लेकिन सबके बीच बुदबुदाहट इसी बात की थी कि मृणाल के आँखों में अम्मा के लिए आँसु तक नहीं आए। इन सभी बातों को सुन संजीव और आग-बबूला होता और अपने शब्दों की आग मृणाल पर बरसाता। कुछ रिश्तेदारों ने तो यह नसीहत दे डाली की इस अपाहिज को छोड़ कर दूसरी शादी कर लो।

इस तरह की कानाफूसी ने मृणाल के भय को और बढ़ा दिया, किसी को भी यह अंदाजा नहीं था कि वह अपने अंतर्मन में कौन-सा युद्ध लड़ रही थी। लेकिन इन सभी बातों को नज़रअंदाज कर संजीव अम्मा के शोक और उनके अंत के दिनों में उनसे किए व्यवहार के पछतावे में एक प्यासे मृग की तरह मन ही मन में तड़प रहा था। अम्मा के जाने के बाद संजीव को अम्मा के साथ उस घर में बिताए हर पल को याद आती जिन्हें वह याद कर आँसू बहाता था।

एक शाम संजीव कुछ शांति के पल बिताने छत पर आ कर बैठा। हवा में ठंडक थी और चारों ओर उदासी का माहौल छाया हुआ था। तभी उसका ध्यान आँगन से आ रही घरेलू शोर से टूटा, उसने आँगन में नीचे की तरफ़ नजर फेरी तो उसे कोई अपना न लगा। एकाएक उसकी नज़र कोने में बैठी मृणाल पर पड़ी। मृणाल एक थकी हुई-सी छवि प्रस्तुत कर रही थी। बार-बार अपने कंधे को सहला रही थी। प्रतीत होता है कि बैसाखी के अधिक प्रयोग से उसके कंधे दर्द हो रहा हो और उसकी आत्मा तक थकी गई हो।

संजीव ने पहली बार मृणाल के चेहरे को ध्यान से देखा था। मृणाल के माथे पर तनाव की गहरी रेखाएँ थीं और आँखों के नीचे गहरे काले घेरे। उसके एक हाथ ने सिर को सहारा दिया हुआ था, जो दीवार पर टिका हुआ था, और उसकी आँखें आधी बंद थीं, मानो वह हर समय की थकान और निराशा से जूझ रही हो। मृणाल को ऐसे देख संजीव के दिल में कुछ टूट-सा गया। उसे मृणाल में अपनी अम्मा की झलक दिखाई देने लगी। अम्मा, जो हमेशा धैर्य, प्रेम और साहस का प्रतीक थीं, अब मृणाल में प्रतिबिंबित हो रही थीं।

तभी रिश्ते में आयी एक बुज़ुर्ग महिला ने पानी की मांग की। मृणाल ने तुरंत अपने एक हाथ से बैसाखी पकड़ी और दूसरे हाथ से दीवार का सहारा लेते हुए खड़ी हुई। उसने रसोईघर की तरफ चलना आरम्भ कर दिया। एक सामान्य व्यक्ति के लिए किसी को एक गिलास पानी देने का कार्य बहुत ही आसान प्रतीत होता है। मृणाल एक हाथ से बैसाखी प्रयोग करती है। उसने दूसरे हाथ से गिलास में पानी भरा और गिलास लेकर बुज़ुर्ग महिला की तरफ़ चल दी।

यह देख संजीव उन सभी स्थितियों और परिस्थितियों की कल्पना करने लगा जो वह मृणाल के साथ उस लखनऊ के घर में रह कर न देख सका।
किस तरह मृणाल को छोटे-से-छोटे कामों को भी करने के लिए संघर्ष करने पड़ते हैं। अम्मा के साथ किए व्यवहार का दुःख और पछतावा तो संजीव को था ही, पर अब उसे मृणाल के साथ किए गए व्यवहार पर भी आत्म-ग्लानि होने लगी थी।

दिन बीतते गए और संजीव के मन में मृणाल के लिए बनी नफ़रत की दीवारें टूटने लगीं। वह संजीव जिसने मृणाल को अस्वीकार्य किया था उसे मृणाल के सभी कार्य, व्यवहार और विचार अब अच्छे लगने लगे थे।

संजीव मृणाल से माफ़ी मंगाना चाहता था। वह उसे बताना चाहता था कि वह किन परिस्थितियों से गुज़र रहा है लेकिन उसकी न झुकने वाली प्रवृत्ति और पुरुष प्रधानता का अहम उसे ऐसा करने से रोक रहा था। उसको ये बातें मन ही मन खाए जा रही थी कि कैसे मृणाल के धैर्य और हिम्मत ने उसकी नफ़रत को प्रेम में बदल दिया था – वह मृणाल के सामने ख़ुद हो बहुत छोटा महसूस करने लगा था।

तेरहवीं बीत चुकी थी। अगली शाम संजीव घर से सभी रिश्तेदारों को विदा करने के बाद बाहर बरामदे में बैठ गया। उस दिन ठंड थोड़ी कम थी और आसमान भी साफ़ था। आधे से थोड़ा अधिक बड़ा चाँद पूरे आकाश को रौशन कर रहा था। आँगन से आ रही चांदनी ने घर में जल रहे कम बिजली के बल्बों के बावजूद पूरा घर में उजाला भरा हुआ था।

रिश्तेदारों के जाने के बाद घर में फैली शांति संजीव को हर तरफ़ अम्मा की कमी का एहसास करा रही थी। संजीव बरामदे से उठकर अम्मा के कमरे में गया तो देखा कि मृणाल पहले से ही वहाँ मौजूद थी और वह अम्मा की अलमारी में रखे सामान को व्यवस्थित कर रही थी। संजीव बिना अपना मौजूदगी अह्सास कराए वहाँ से जाने लगा।

तभी पीछे से आवाज आई, “आ गए आप?”

बीते कुछ दिनों में संजीव जिन परिस्थितियों से गुज़रा उस पर इन शब्दों ने संजीव के मन-मस्तिष्क को सुकून देने का काम किया था। संजीव ने सिर हिलाते हुए सहमति दी और मृणाल से नजरें बचाकर वहाँ से जाने लगा।

तभी पीछे से मृणाल की आवाज आई, “पानी लाऊँ?”

संजीव ने यह सुन ख़ुद रसोई में जाकर पानी लिया और पानी पीते हुए किचन से बाहर आकर आँगन में बैठ गया।

मृणाल भी कमरे से अपनी बैसाखी के सहारे निकलती है। उसने रसोईघर की तरफ़ जाते हुए पूछा, “चाय पियेंगे?”

इस पर संजीव ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। वह चुप रहा और अपने दिमाग में चल रही मानसिक लड़ाई में खोया रहा। मृणाल संजीव की चुप्पी को उसकी स्वीकृति समझकर रसोईघर में चली गई।

शोक में डूबा और व्याकुल संजीव आँगन में बैठा इसी असमंजस में था कि क्या करे, कैसे वह अपनी बात मृणाल को बताये, अगर बता भी देता है तो मृणाल उस पर क्या प्रतिक्रिया देगी। अभी संजीव इसी जद्दोजहद में था कि तभी रसोईघर से बर्तन गिरने की आवाज आयी और मृणाल की चीख सुनाई दी। संजीव की नज़र रसोई की ओर गई, वह तुरंत रसोईघर की तरफ दौड़ा। जाकर देखा तो मृणाल फर्श पर बैठी अपना हाथ सहला रही थी। उसके मुख पर पीड़ा के भाव थे। पास ही चाय का बर्तन और बैसाखी गिरी पड़ी थी और उनके आस-पास उबला पानी फैला हुआ था।

संजीव को यह समझने में एक क्षण नहीं लगा कि गर्म पानी मृणाल के हाथ पर गिर गया है। उसने तुरंत फ्रिज से बर्फ़ के टुकड़े निकाले और उससे मृणाल की हाथों की सिकाई करने लगा। दर्द से तड़प रही मृणाल संजीव के स्पर्श से थोड़ा असहज हुई लेकिन बर्फ के कारण उसे राहत भी मिली।

सिकाई करते समय संजीव ने मृणाल के हाथ में लगे जले-कटे के निशान देखे जो उसे भोजन बनाने और घर के अन्य काम करने के दौरान लगे होंगे। यह सब देख संजीव का मन भर आया, उसकी आँखों में आँसू भर गए थे और गला ग्लानि भारी हो गया था। उसे वे पल याद आने लगे जिनमें उसने मृणाल के साथ ग़लत किया था।

उसे पछतावा था कि आखिर उसने क्यों मृणाल के जीवन को खुशियो से नहीं भरा जिसकी वह हकदार थी, क्यों उसने मृणाल के जीवन को बेहतर नहीं बनाया। उसने मन ही मन दृढ़ निश्चय किया कि भविष्य में मृणाल को किसी भी प्रकार की तकलीफ़ नहीं देगा। वह रुआँसे स्वर में बोला, “मुझे माफ़ कर देना मृणाल…”

अभी संजीव अपनी बात पूरी नहीं कर पाया था कि उसकी नज़र मृणाल की नज़र से मिल गई। वह स्तब्ध रह गया। उसने मृणाल की आँखों में भी अश्रु देखे। मृणाल ने जिस दुःख को हिम्मत और धैर्य-रूपी बाँध से रोका हुआ था वह जल्दी ही टूट गया। वह संजीव के सीने से लग कर फूट-फूट कर रोने लगी। उसके आँसू गंगा नदी की तरह बहते जा रहे थे जो रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। इन आँसुओं की पवित्रता ने संजीव के सारी पापों को धो दिया था।

मृणाल के रोने की आवाज़ सुनने मात्र से ही ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि उसने कितनी बड़ी आँधी को अपने अंदर समेटे रखा था, आज मानो वह अपने सभी दुःखों से आज़ाद हो रही थी। इस अवस्था में वह बस एक ही बात बोल पायी, “आख़िर मेरी ग़लती क्या थी?”

संजीव, जिसने मृणाल को अपनी बाहों में समेट रखा था, उसके कर्म, पश्चाताप के आँसू बन आँखों से बहते जा रहे थे।

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Kalaram Rajpurohit
Kalaram Rajpurohit
4 months ago

अगर कोई सामान्य पुरुष या महिला किसी विकलांग साथी से शादी करता है या उसे शादी करनी पड़ती है तो वह उस विकलांग साथी को अपने जीवन पर बोझ समझता है और शायद इसी वजह से ज़्यादातर विकलांग लोग अपना जीवन साथी चुनते समय विकलांग साथी को प्राथमिकता देते हैं। ऐसा हर किसी के साथ नहीं होता लेकिन ज़्यादातर लोगों की यही कहानी होती है।

Rashi
Rashi
4 months ago

कहानी ने पूरी तरह से बांध लिया। कल्पना अपने आप बनती चली गई जैसे कोई मूवी देख रही हुं। इतना अच्छा लिखा है हिमांशु जी आपने। वाकई बहुत कुछ सीखा ।

Nupur Sharma
Nupur Sharma
4 months ago

कहानी बहुत अच्छी है। काफ़ी हद तक वास्तविक जीवन की झलक देखने को मिलती है।
सही में आपने जिस बारीकी से विकलांग व्यक्ति के संघर्ष का चित्रण किया है, उससे साफ दिखता है कि आप एक मंझे हुए लेखक हैं।
आपकी लेखनी यूँ ही चलती रहे। यही शुभकामनाऐं हैं।

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