लेखक: भारती • नई दिल्ली की निवासी भारती पोलियो से प्रभावित हैं। वे एक शिक्षिका हैं और एक सरकारी स्कूल में पढ़ाती हैं।
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ईश्वर का रचना संसार बहुत अद्भुत है। उसने इस संसार को बहुत ही सुन्दर बनाया है, परंतु उसकी कुछ रचनाओं में थोड़ी-सी कमी रह जाती है। वे रचनाएँ थोड़ी-सी अधूरी रह जाती हैं, अधूरापन शारारिक भी हो सकता है और मानसिक भी। ईश्वर के न चाहते हुए भी कुछ न कुछ कमी रह ही जाती है। जब एक मूर्तिकार मूर्ति बनाता है और उसमें कुछ कमी रह जाए तो वह दूसरी मूर्ति बना देता है। इसी तरह कुम्हार जब मिट्टी के बर्तन बनाता है और अगर किसी बर्तन का आकार सही न बने तो वह दोबारा शुरुआत करता है। कुम्हार तब तक हार नहीं मानता जब तक वह बर्तन को मनचाहा आकार नहीं दे देता। कुम्हार और मूर्तिकार दोनों ही अपनी रचनाओं को हर तरीके से संपूर्ण बनाना चाहते हैं परंतु ईश्वर के साथ ऐसा नहीं है। जब वह अपनी मानव रूपी रचना को आकार देता है और उसमें अगर कुछ कमी रह जाए तो वह उसे वैसा ही रहने देता है। कुछ रचनाओं में यह विकार जन्म के समय, कुछ में जन्मोपरांत और कुछ में दुर्घटना के कारण हो जाता है। इस विकार में कुछ हद तक सुधार तो किया जा सकता है पर बिल्कुल ठीक नहीं किया जा सकता। उम्र भर इसी के साथ जीना पड़ता है।
इस विकार के कारण सामाजिक जीवन में इस रचना की कद्र थोड़ी कम हो जाती है। उसे हर क्षेत्र में कमतर आंका जाता है। कुछ क्षेत्रों में भेदभाव का व्यवहार किया जाता है तो कुछ में हीन दृष्टि से देखा जाता है। इस रचना को जन्म देने वाले उसके माता-पिता को छोड़कर सभी उसे अलग दृष्टि से देखते हैं। जन्मदाता को अपनी वह रचना सर्वाधिक प्रिय होती है। अपने प्यार से वह इस कमी को पूरा करने की भरसक कोशिश करता है।
ईश्वर भी अपनी इस रचना में हुई भूल को सुधारने के लिए कुछ विशेष भेंट देकर क्षतिपूर्ति करने की चेष्टा करता है। अपनी इस रचना को वह कुछ ऐसे गुण दे देता है जो उसे औरों से विशिष्ट बनाते हैं। यह रचना साधारण होकर भी असाधारण बन जाती है।
जब ईश्वर और जन्मदाता दोनों ही अपनी रचना को इतना प्यार करते हैं तो उसका भी फ़र्ज बनता है कि वह भी स्वयं से प्यार करे। स्वयं में आत्मविश्वास जगा ले कि वह अद्वितीय रचना है और कुछ भी करने में सक्षम है। ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’ इस मंत्र को उसे अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लेना चाहिए। उसे कोई भी नहीं हरा सकता जब तक वह स्वयं से हार नहीं मान लेता।
‘Be the best version of yourself’ को उसे अपने जीवन का लक्ष्य बना लेना चाहिए। अधिक से अधिक ज्ञानार्जन करें क्योंकि ज्ञान और कड़ी मेहनत ही सफलता की कुंजी है। नये कौशल विकसित करें। नया सीखने के लिए सदैव तत्पर रहे। असीम संभावनाएं आपका इंतजार कर रही हैं। हीन भावना को जन्म न लेने दे। ऐसे दोस्त बनाये जो आपको मानसिक रूप से दृढ़ बनाये, आपका मनोबल बढ़ाएँ और आपको आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करें। आपको यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए कि आप स्वयं के कर्णधार हैं, अन्य व्यक्ति आपकी केवल मदद और मार्गदर्शन कर सकते हैं। अपनी जीवन-रूपी नाव तो आपको स्वयं ही पार लगानी पड़ेगी।
सकरात्मक सोच का आध्यात्मिक स्वरुप… बहुत सुन्दर लेख भारती जी
आपका लेख बहुत अच्छा है; लेकिन मैं कहना चाहूँगी कि दुनिया में “सम्पूर्ण” जैसा कुछ भी नहीं होता। हर किसी व्यक्ति, वस्तु में कोई-न-कोई कमी होती है है। बस फर्क मात्र इतना होता है कि किसी की कमी जग- जाहिर होती है और किसी की नहीं।
हमारे ईश्वर से हमें बनाने कोई चूक नहीं हुई। वरण बस उसने हमारी कमीं को छुपाया नहीं।
इसके पीछे निश्चित ही उसकी मनसा स्वीकार्यता की भावना की रही होगी।
स्वीकार्यता हमारी ख़ुद से और उन लोगों से जिनकी कमियाँ ईश्वर ने दृष्टिगोचर नहीं की है।
वह ज़रूर भेदभाव रहित संसार की रचना करना चाहता है। यदि सब समान होते तो अपने मन के किसी कोने में बसी भेदभाव की भावना का न ही हम जान पाते और न ही मिटा पाते।
इसी भावना को जानने-समझने और इसे समूल मिटा देने के लिए ही ईश्वर ने अपनी सभी रचनाओं को समान नहीं गढ़ा।
ईश्वर की इस अद्भूत रचना “संसार” की सुन्दरता भी असमानता में ही बसती है।