banner image for viklangta dot com

‘वन डे व्हीलचेयर चैलेंज’ लेख के विरोध में

कभी-कभी कुछ बातें हो जाती हैं जो मन को इतना विचलित कर देती हैं कि उस विषय पर ख़ामोश रह जाना सही नहीं लगता।

कल शाम विकलांगता डॉट कॉम पर प्रदीप सिंह का लिखा एक आलेख पढ़ा। “वन डे व्हीलचेयर चैलेंज” शीर्षक से प्रकाशित इस आलेख में लेखक ने आत्महत्या के विचार को अपने मन से हटाने के लिए ‘नॉर्मल’ लोगों को एक दिन व्हीलचेयर पर गुज़ारने का चैलेंज दिया है। परिचय के मुताबिक़ सेरिब्रल पाल्सी के कारण लेखक खुद एक व्हीलचेयर प्रयोगकर्ता हैं और उनका मानना है कि किसी भी ‘नॉर्मल’ व्यक्ति की ज़िन्दगी में आई कोई भी कठिनाई उनकी रोज़ की ज़िन्दगी से ज्यादा बड़ी नहीं हो सकती। कुल मिलाकर लेखक ने खुद को जिजीविषा के उच्चतम उदाहरण की तरह पेश किया है। उनका मानना यह भी है कि विकलांग व्यक्ति अपनी विकलांगता के बावजूद आत्महत्या नहीं करता जबकि ‘नॉर्मल’ लोग ज़िन्दगी की छोटी-बड़ी परेशानियों में यह कदम उठा लेते हैं।

इस आलेख में लिखी कई बातों से मुझे ऐतराज़ है। लेकिन सबसे पहले मैं यह स्पष्ट कर देना चाहती हूँ कि मैं लेखक को निज़ी तौर पर नहीं जानती और न ही मुझे उनके इस आलेख की नेक-नियति पर कोई संदेह है। पर उद्देश्य का नेक होना ही हर बार काफ़ी नहीं होता।

प्रदीप जी के आलेख के विरोध में लिखने का मेरा सबसे बड़ा कारण यह है कि यह आलेख आत्महत्या जैसे गंभीर विषय को बहुत सतही स्तर पर ले आया है। हमारे समाज में यूँ भी मानसिक स्वास्थ्य (मेंटल हेल्थ) को लेकर बहुत जागरूकता नहीं है और इस तरह के आलेख उस जागरूकता को और पीछे धकेलते हैं।

क्या व्यक्ति अपने दैनंदिनी परेशानियों के कारण ही आत्महत्या करता है?

नहीं! यदि उक्त लेखक की तरह आप भी यह सोचते हैं कि व्यक्ति अपनी ज़िन्दगी की छोटी-बड़ी परेशानियों से परेशान होकर आत्महत्या करने का प्रयास करता है तो आपको इस विषय में और जानकारियाँ इकट्ठी करने की ज़रूरत है।

आत्महत्या कोई इतना सीधा-सरल विषय नहीं है। व्यक्ति के जीवन की परेशानियाँ कुछ मामलों में आत्महत्या का तात्कालिक कारण हो सकती हैं लेकिन अक्सर इसके मूल में उनके मानसिक स्वास्थ्य का ठीक न होना होता है।

आत्महत्या या आत्महत्या का विचार अक्सर अवसाद जैसी मानसिक परिस्थितियों के कारण उत्पन्न होता है और ऐसी स्थिति में व्यक्ति का अपने विचारों और कार्य पर बहुत नियंत्रण नहीं रह जाता। कई बार तो व्यक्ति के पास आत्महत्या का कोई तात्कालिक कारण भी नहीं होता और व्यक्ति खुद को मार डालने जैसा बड़ा कदम उठा लेता है।

क्या आत्महत्या के विचार से गुज़रते व्यक्ति को ‘वन डे व्हीलचेयर चैलेंज’ जैसी किसी चीज़ से बचाया जा सकता है?

आत्महत्या के विचार से जूझते किसी व्यक्ति की आप वाकई मदद करना चाहते हैं तो सबसे पहले उसे उपयुक्त चिकित्सीय सहायता दिलाने का प्रबंध करें। यह समझना ज़रूरी है कि आत्महत्या के विषय में सोचते व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं है और उसे वैसे ही चिकित्सीय सहायता की ज़रूरत है जैसे किसी शारीरिक रूप से बीमार व्यक्ति को होती है।

रही बात ‘वन डे व्हीलचेयर चैलेंज’ की तो भूल कर भी किसी अपने को ऐसी बात न कहें। मानसिक रूप से परेशान व्यक्ति (चाहे उसके मन में आत्महत्या के विचार उठे हों या न उठे हों) को सबसे ज्यादा ज़रूरत होती है कि कोई उसके दुःख दर्द को सुने और समझे। ऐसे वक़्त में आप व्यक्ति के साथ सबसे बुरा कार्य कर सकते हैं तो वह यही है कि उसे ऐसा कोई चैलेंज देकर यह एहसास कराएँ कि वह कितना कमज़ोर है; उससे अधिक परेशानियों के साथ लोग जी रहे हैं।

यदि आप किसी की परवाह करते हैं तो कृपया उसकी परेशानियों को सुनिए, समझिये और उसे सहानुभूति के साथ यह एहसास दिलाइए कि आप ज़िन्दगी की परेशानियों में उसके साथ हैं। हमेशा!

क्या ‘वन डे व्हीलचेयर चैलेंज’ का कोई औचित्य है?

आत्महत्या के विचार से जूझ रहे व्यक्ति को तो ख़ैर भूल कर भी यह चैलेंज नहीं दिया जाना चाहिए लेकिन मुझे नहीं लगता कि ऐसे किसी चैलेंज का यूँ भी कोई औचित्य बनता है। आलेख में प्रदीप जी ने लिखा है कि उनके रोज़ की ज़िन्दगी का संघर्ष ही इतना बड़ा है कि वह ‘नॉर्मल’ व्यक्ति की हर परेशानी से हमेशा ज्यादा ही रहेगा। इन बातों में मुझे सहानुभूति की बहुत ज्यादा कमी लग रही है… ऐसे जैसे लेखक ने ख़ुद को किसी और की जगह रख कर सोचा ही न हो।

हर किसी की ज़िन्दगी अलग होती है और उनकी ज़िन्दगी के संघर्ष अलग होते हैं। यह कह देना कि हमारी ज़िन्दगी में ही सबसे अधिक कष्ट है यह दर्शाता है कि आप दूसरों के कष्टों को महसूस ही नहीं करते।

एक अच्छा इंसान होने के लिए मुझे लगता है दो गुणों का होना बहुत ज़रूरी है – अपने कष्टों के लिए सहनशीलता और दूसरों के कष्टों के लिए सहानुभूति!

ज़िन्दगी कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है जहाँ हम यह बताएँ कि हमारा कष्ट तुम्हारे कष्ट से बड़ा है। हमें हर किसी के कष्ट को उसी सहानुभूति से महसूस करना चाहिए जैसा हम अपने कष्टों को करते हैं। प्रतिस्पर्धा करने पर आएँ तो कोई किसी व्यक्ति के कष्ट को समझेगा ही नहीं। हालाँकि मुझे नहीं मालूम कि प्रदीप जी की शारीरक स्थिति क्या है लेकिन दावे के साथ कह सकती हूँ कि उनसे ज्यादा कष्ट में जी रहे लोगों की फ़ेहरिस्त निकाल कर दे सकती हूँ।

आजकल इन्स्टाग्राम पर हट्ठे-कट्ठे नवयुवकों का पीरियड सिम्युलेटर से पीरियड्स के दर्द को झेलने के विडियो बहुत आ रहे हैं जिसमें वे एक मिनट के अन्दर तड़प कर गिर जाते हैं। व्हीलचेयर पर बैठी एक लड़की होने के नाते मैं प्रदीप जी को कह सकती हूँ कि अपने कष्टों को गिनने से पहले पीरियड सिम्युलेटर का इस्तेमाल करके देखें कि आपकी स्थिति में रह रही लडकियाँ कितने कष्ट में जी रही हैं। कोई हेलेन केलर जैसा या अन्य बहु-विकलांगता झेल रहा व्यक्ति कह सकता है कि किसी दिन बिना देखे और बिना सुने जी कर देखो कि तुम्हारी ज़िन्दगी कितनी ख़ूबसूरत है। व्हीलचेयर पर ही क्यों; कष्टों की पराकाष्ठा देखनी है तो चलो हम सब अपने पार्श्व भाग में बेड सोर जैसे कष्टकर घाव कर के बिस्तर पर ऐसी मजबूर अवस्था का एहसास करते हैं जहाँ अपनी मर्ज़ी से हम अपनी ऊँगली भी न हिला सकें।

किसी के कष्ट के ज्यादा होने से किसी और का कष्ट कम नहीं हो जाता।

क्या विकलांगता के कारण कोई विकलांग व्यक्ति आत्महत्या करने की नहीं सोचता?

प्रदीप जी ने अपने आलेख में यह भी लिखा है कि कोई विकलांग व्यक्ति आत्महत्या न करता है न करने की सोचता है; वह तभी मरता है जब प्राकृतिक तौर पर मौत आती है।

हो सकता है प्रदीप जी के मन में कभी आत्महत्या का विचार नहीं आया हो (और यह अच्छी बात है) लेकिन विकलांग व्यक्ति भी किसी आम गैर-विकलांग व्यक्ति की तरह ही चीज़ों को देखता और महसूस करता है। एक विकलांग होने के नाते मैं यह कह सकती हूँ कि मेरे मन में कई बार आत्महत्या के विचार आये हैं और मैंने अपनी क्षमता के हिसाब से आत्महत्या कर लेने की कोशिश भी की है। अपनी किशोरावस्था में, जब तक अपनी विकलांगता को सकारात्मकता के साथ अपनाना न सीख लिया तब तक मैंने आत्महत्या के कई प्रयास किये हैं।

बात सिर्फ़ मेरी नहीं है। अपने उपन्यास ‘लकीर के उस पार’ में एक जगह मैंने मुख्य पात्र को आत्महत्या के विचार से जूझते हुए दर्शाया है और उसे पढ़ कर कई विकलांग लोगों ने मुझसे ये कहा है कि वे उस भाग से पूरी तरह जुड़ पा रहे थे क्योंकि कभी वे भी उस कश्मकश से गुज़रे थे।

एक विकलांग व्यक्ति जब आत्महत्या के बारे में सोचता है न तो उस सोच के साथ बहुत सारी कुंठा और निराशा से भी गुज़रता है क्योंकि जीवन के हर काम की तरह उसके पास विकल्प बहुत सिमित हो जाते हैं। चलन-सम्बन्धी विकलांगता से जूझते हुए मैं सोचा करती थी कि मैं पंखे से लटक कर जान नहीं दे सकती, मैं छत पर चढ़ कर नीचे नहीं कूद सकती आदि।

विकलांगता आत्महत्या के प्रयास या उसके सफल होने में बाधा ज़रूर बन सकती है लेकिन ऐसा नहीं है कि वह आत्महत्या की चाहत का कारण नहीं बनती।

अंत में…

पूरे आलेख के निष्कर्ष के रूप में मैं यही कहना चाहूँगी कि आत्महत्या जैसी गंभीर स्थिति को इतने हल्के में न लें कि आपकी दो-चार प्रेरणादायक बातों से व्यक्ति का मन बदल जाएगा। ऐसी स्थिति में शीघ्र अति-शीघ्र चिकित्सकीय सहायता लें और व्यक्ति के साथ पूर्ण सहानुभूति से पेश आएँ।

मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूक बनें और अपने आसपास भी जागरूकता फैलाएँ। आत्महत्या या उसके विचार की गंभीरता को समझें और मानसिक स्वास्थ्य में प्रशिक्षित विशेषज्ञों की सहायता लें; स्वयं नुस्ख़े न बनाएँ।

Subscribe
Notify of
guest

8 Comments
Oldest
Newest
Inline Feedbacks
View all comments
प्रदीप सिंह
प्रदीप सिंह
9 months ago

आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ आत्महत्या प्लान बना कर तो होती नहीं तो ‘वन डे व्हीलचेयर चेलेंज’ का कोई औचित्य नहीं बनता लेकिन बस इतना ही कहूँगा कि जिजीविषा का उच्चतम स्तर किसी काम का नहीं रहता जब शरीर अकड़ जाए आवाज़ तो दूर साँस लेना तक कठिन हो तब कोई हौंसला कोई मोटिवेशन अच्छी नहीं लगती। लगता है कि अभी मौत आ जाए बस। जानता हूँ कि मुझसे बद्दतर स्थिति में भी लोग मुझसे कहीं बेहतर जीवन जी गए हैं आपने उनमें से एक हेलेन केलर का नाम लिया ही है।

आपका धन्यवाद कि लेख को एक अलग नजरिए से देखा और इस पर अपनी बात रखी। वरना आजकल तो लाइक बटन दबाने में भी लोगों का समय नष्ट होता है।

बहुत-बहुत आभार आलोकिता ma’am 🙏🙏🙏🙏🙏

Holmes
Holmes
9 months ago

Yeh lekh padh kar mujhe ek Japanese animation movie ‘A silent voice ‘ ki yaad aa gyi. Suicide usme ek main topic tha.
Bharat mein ham mental health ko jada dhyan dete hi nhi isliye Apples to Oranges ho jata h.

Sandeep Kumar
Sandeep Kumar
9 months ago

आपने बहुत अच्छा लिखा है। मेरा भी यही मानना है कि विकलांग लोगों के मन में भी आत्महत्या जैसे विचार कभी ना कभी जरुर आते हैं, कुछ लोग संघर्ष करते रहते हैं और कुछ लोग हार मान लेते हैं।अगर मैं अपनी बात करु तो मैं भी विकलांग हूं और मेरी उम्र 27 साल है तथा अभी तक बेरोजगार हूं तो….. कभी कभी ऐसा लगता है कि चलो बस सब यही खत्म करते हैं

सुनील थुआ
सुनील कुमार
9 months ago

बेहतरीन आलोचनात्मक दृष्टिकोण से विश्लेषण

डॉली परिहार
डॉली परिहार
9 months ago

अपना-अपना दृष्टिकोण है, मेरी नज़र में दोनों लोगों ने सही लिखा है।

प्रदीप जी का लेख उन लोगों के लिए है जो आजकल के किशोर माँ ने फोन ले लिया तो उन्होंने सुसाइड कर ली, प्रेमी से मिलने न दिया तो सुसाइड कर ली।

और आलोकिता जी उनके लिए लिखी हैं, जिन्हें देखकर हमारे मन में ध्यान आता… दुनिया में कितना गम है, मेरा गम कितना कम है।

सभी की अपनी-अपनी मुश्किलें हैं, उन्हें झेलने वाला हर व्यक्ति साहसी है। कुछ नहीं झेल पाते तब आत्महत्या जैसा कदम उठाते हैं। लेकिन, ये भी सच है कि अब कुछ लोग जरा-जरा सी बात पर मरने लगे हैं। ये वो लोग हैं, जिनपर सोशल मीडिया का ज्यादा असर है।

कंचन सिंह चौहान
Kanchan
9 months ago

बहुत अच्छा लिखा आलोकिता, असल में यही तो है विमर्श।

हम अगले स्तर पर जाने में समर्थ होते हैं।

यह बात कितने ही लोगों को विकलांगों की प्रशंसा में कहते सुना कि वे इस स्थिति में हो कर भी आत्महत्या नहीं करते/नहीं कर रहे।

विकलांग व्यक्ति को भी यह पैम्परिंग अच्छी लगी और
वह इसी में गौरव बोध करने लगा।

जबकि ऐसा नहीं है कि विकलांग आत्महत्या नहीं करते।

अभी थोड़े दिन पहले लखनऊ में एक विकलांग पीसीएस ऑफीसर ने अपने कमरे की खिड़की से कूद कर आत्महत्या करी है।

मैं अक्सर कहती हूँ कि हर विमर्श की तरह विकलांग विमर्श के भी कई आयाम हैं। पहले स्तर पर यह बात कि विकलांग को समानता का अधिकार मिले, उसके प्रति लोगों का नज़रिया क्या हो और अगले स्तर पर यह कि वह ख़ुद अपने साथ कैसा व्यवहार करे, बहुत सामान्य बात है कॉम्प्लेक्स आना उन कॉम्प्लेक्स से कैसे बचे, समाज के साथ उसका क्या व्यवहार हो आदि… आदि… आदि !

सफर लम्बा है लेकिन कदम सही उठ गए हैं 🙂

प्रदीप को मैं व्यक्तिगत स्तर पर जानती हूँ। बहुत अच्छे व्यक्ति हैं। हम एक दूसरे के साथ ही सीखते हैं। विश्वास है कि प्रदीप ने भी अलोकिता के विचार को सीखने की कड़ी में ही शामिल किया होगा।

जयप्रकाश 'विलक्षण'
जयप्रकाश 'विलक्षण'
9 months ago

आलोकिता, जैसा नाम, वैसा ही लेख, अंतर्मन को आलोकित करने वाला। प्रदीप जी से लेखन के स्तर पर कई वर्ष पुराना संबंध है, इसलिए कह सकता हूँ कि उनमें संवेदनशीलता की कोई कमी नहीं है। जिस प्रकार की शारीरिक स्थिति उनके साथ है, मुझे नहीं लगता कि मैं वैसी ही स्थिति से कैसे सामंजस्य बैठा पाता और इस कारण इनकी जिजीविषा को बारंबार नमन करता रहा हूँ। उपरोक्त सच के साथ उनके लेख से भी सहमत हूँ।

लेकिन आपके आलेख को पढ़कर एक ही विषय को दूसरे दृष्टिकोण से देखने का अवसर मिला। प्रदीप जी के लेख में समाहित विचारों को खारिज नहीं किया जा सकता, किंतु आपके लेख ने उनके विचारों को एक नया आयाम दिया है। निश्चित रूप से आपने व्यावहारिकता के धरातल पर रखकर विषय को समझने-समझाने की पहल की है। विपत्ति या किसी भी समस्या से जूझ रहे मनुष्य की अंतर्चेतना तक पहुँचकर उसके मस्तिष्क तंत्र में चल रहे घमासान और पीड़ा को समझने का उत्कृष्ट प्रयास किया है। संभवतः इसका एक कारण उस व्हील चेयर के दर्द को स्वयं समझना और एक संवेदनशील मनुष्य और निष्पक्ष मननशील लेखक होना भी है। वर्ना आजकल लोग न तो ऐसे महत्वपूर्ण लेख को पढ़ते हैं, न ध्यान ही देते हैं। अधिकांश तो लाइक और इमोजी के कुछ बटन दबाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं।

इतने गंभीर विषय को समाधान सहित अपने विचारों से परिपुष्ट करने के लिए और इतना उत्कृष्ट लेख लिखने के लिए आपको धन्यवाद! निश्चित रूप से प्रदीप जी को इससे अत्यंत प्रसन्नता होगी।
🙏💐🙏
स्वस्थ रहो! प्रसन्न रहो!
सदैव शुभाकांक्षी
जयप्रकाश ‘विलक्षण’

शान ए फ़ातिमा
शान ए फ़ातिमा
9 months ago

प्रदीप, भईया, तुम्हारा चैलेंज आलोकिता जी की टिप्पणी पढ़ने से पूर्व तो पढ़ा नही था पर अक्सर की तरह टिप्पणी से आलेख को समझा।
मुझे इसपर आगे तो कोई राय इसलिए नहीं रखनी क्योंकि हर व्यक्ति का अपना मत होता है।
न तुमसे पूर्णतय: सहमत, न आलोकित जी से असहमत।
अंग्रेज़ी में बड़ा ही प्रसिद्ध कथन है don’t judge me unless you have walked in my shoes या फिर दूर के ढोल सुहावने ‘the grass looks greener on the other side’ जैसे कथनों को यहां जोड़ा जा सकता है।
मेरे मत से ये सिर्फ़ और सिर्फ़ सोच सोच का फ़र्क है। दरअस्ल ईश्वर बहुत बड़ा है और किसी के साथ अन्याय नहीं करता। सब निर्भर करता है आप कितने मज़बूत हो।
विषय बहुत लंबा है, कहने को बहुत कुछ, रात भी काफ़ी हो चुकी है।
बस एक घटना से अपनी बात रखने का प्रयत्न कर रही हूं।
एक कक्षा में एक अध्यापिका ने पुस्तकीय ज्ञान से हटकर छात्रों से उनके दुख-दर्द पर चर्चा की। हर छात्र ने स्वयं को सबसे ज़्यादा दुखी और किन्ही न किन्ही कारणों से सबसे अधिक कष्ट मे होने का दावा किया।
अध्यापिका ने कहा मैं आप सब के कष्टों का निजात तो नही कर सकती पर उन्हें कम करने का प्रयत्न अवश्य कर सकती हूं। आप सब अपने अपने निजी कष्टों को एक एक काग़ज़ पर लिख कर यहां मेज़ पर जमा कर दें, और चूंकि आप सब के हिसाब से आप सब की पीड़ाएं सबसे ज़्यादा कष्टदायी हैं, आप को मौका मिलेगा की जिस पत्र पर लिखे कष्ट आपको कम पीड़ादायी लगें, आप उनको चुन लें।
फिर क्या? सभी छात्र खुश कि आज तो मेरी पीड़ा दूर।
अब हर छात्र आता, एक एक पत्र उठाता, सब के जीवन की लिखी पीड़ा को पढ़ता और फिर अंत में *अपना ही पत्र ले वापस अपनी सीट पर लौटता।*
तो ज्ञात यह हुआ कि जिन पीड़ाओं को अभी तक हम सबसे अधिक कष्टदायी समझ रहे थे कि दुनिया में इससे ज़्यादा बुरा तो कुछ हो ही नहीं सकता, वो तो दूसरों के मुकाबले सबसे कमतर निकलीं।

और बंधु, यही सच है। सब को दूसरे के पास पीड़ा कम और खुशियां अधिक नज़र आती हैं।
पर इनको मापने का कोई पैमाना न आज तक बना है और न बनेगा।
कोई एक झोपड़ में भी राज कर रहा है तो कोई महलों में भी रोता है।

निजी रूप से अगर बात करूं तो मैं हर हाल में ईश्वर का धन्यवाद ज्ञापन करती हूं। बात फिर वही कहते हैं लोग क्योंकि तुमने अभी दुनिया देखी कहां है कि दुनिया में कष्ट कितने हैं और कष्ट कहते किसे हैं।
तो इन सबको मेरा हाथ जोड़ कर प्रणाम है और इतना कहते चलना है कि कष्ट मेरे जीवन में भी बहुत हैं पर समृद्ध भी बहुत हूं। मुझसे कमतर भी बहुत लोग हैं और मुझसे बेहतर भी लाखों हैं।
न अपनी कमी कभी किसी पर बोझ बनने दूं, न अपनी समृद्धियों का कभी किसी पर अहंकार जताऊं , बस ईश्वर से यही दुआ है।

8
0
आपकी टिप्पणी की प्रतीक्षा है!x
()
x